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दीया / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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समय के सिर का है टीका,
बड़ा ही सुंदर चमकीला;
कंठ का उसके है जुगनू,
कलाएँ हैं जिसकी लीला।
वह सुनहलापन है इसमें,
सुनहली कर दीं दीवारें,
रूप ऐसा है मन-मोहन
फतिंगे जिस पर तन वारें।
तेज सूरज या तारों का
जहाँ पर पहुँच नहीं पाता;
वहाँ पर जगी जोत भरकर
जगमगाता है दिखलाता।
हवा के पाले पलता है,
आग का बड़ा दुलारा है;
नमूना किसी जलन का है,
बहुत आँखों का तारा है।
उँजाला अँधियारे घर का,
दमक का है सुंदर डेरा;
निराला फूल जोत का है,
लाल दमड़ी का है मेरा।