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दीवारों से ऊंची ये खामोशियाँ / शिव रावल

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बुलंदियों की हसरतों में जमीनें फ़िसल रहीं हैं
होंसलों की उड़ानों को वक़्त की दरारें निगल रही हैं
लोग कहते हैं कि खामखां बरपा है हंगामा
हालातों की नेज़ुओं पर हसरतें लटक रही हैं
ये भीड़ जो अजनबी-सी टहलती रहती है महफिलों में
ज़रा पूछे परवाने से के राख हुई शम्मा भला कैसे पिघल रही है

किनारे की दूरी को तरसता रहता है मांझी अक्सर
के कश्तियाँ आजकल यहाँ मझधारों को मसल रही हैं
दीवारों से ऊंची ये खामोशियाँ 'शिव'
न जाने क्यों उस जुबां को मचल रही हैं