भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुकूल तुम्हारा क्या लहराया / गिरधारी सिंह गहलोत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुकूल तुम्हारा क्या लहराया
पुरवाई ने छेड़े गीत
शरद चांदनी की रातों में
खोये हुए थे हम बातों में
प्रीत के अनुपम खेलों की
उन मधुर सुहानी शह मातों में
तभी अचानक कुछ रुक रुक कर
कुसुमलता सा किंचित झुककर
चन्दन तन ये क्या अलसाया
अंगड़ाई ने छेड़े गीत
   
दुकूल तुम्हारा...
   
रूप तुम्हारा जिसने निहारा
अपना सर्वस तुम पर हारा
तुम भी तो अनभिज्ञ नहीं हो
सुन्दरतम हर अंग तुम्हारा
दर्पण में देखा जब यौवन
किलक उठा लो सारा तन मन
दर्पण देख तुम्हे शर्माया
परछाई ने छेड़े गीत
   
दुकूल तुम्हारा…
   
मेरी कल्पना मेरी सरगम
मेरी जीवन नद का संगम
एक तुम्ही तो हो बस जानम
मेरी खुशियां मेरा हर गम
तेरा दर्शन मेरा जीवन
तेरा चिंतन मेरा अर्चन
ध्यान तुम्हारा जब जब आया
तन्हाई ने छेड़े गीत
   
दुकूल तुम्हारा क्या लहराया
पुरवाई ने छेड़े गीत