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दुख दरिया था बहता आया / पुरुषोत्तम प्रतीक

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दुख दरिया था बहता आया
मन सागर था सहता आया

जंगल चीख़ रहा है सारा
एक परिंदा कहता आया

पानी था बालू का घर था
वो बहता ये ढहता आया

धूप, हवा पानी की साज़िश
पत्ता-पत्ता सहता आया

धरती महकाई है उसने
जो ख़ुशबू-सा रहता आया