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दुनिया उतनी ही पुरानी है, जितना समय / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना

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तुम कहते हो : दुनिया उतनी ही पुरानी है, जितना समय
सम्भव है तुम सही हो, बहस नहीं करूँगा मैं
मगर देखो तो आसमान में सितारे कैसे चमचमाते हैं
गो रोशन हुए हों फ़कत एक घण्टा पहले

ऋतुराज आता है तो लगता है गाछ
मना रहा है अपने पहले फूल का उत्सव
गो, हर कली, हर कोंपल नई है,
नया है उसका खिलना, उसका चटकना ।

हरेक झेलता है दुख अपने तईं बेमिसाल
हरेक को ढोना है ख़ुद अपने-अपने कान्धे का बोझ
मगर विचारता है हममें से हरेक
कि हमसे पहले —
न इतनी विपत्ति थी, न थी इतनी वेदना ।

जब घटता है हमारे जीवन में कुछ सुखद
तो वह संयोग है, न कि हमारा जन्मसिद्ध अधिकार
और जब भी मौत आती है किसी बूढ़े, किसी युवा के पास
तो मौत का क्षण बूढ़ा नहीं होता, होता है जवान ।

इस पुरानी दुनिया में बनते रहेंगे नए मकान
हर नए सितम्बर में पाठशालाओं में प्रविष्ट होंगे नए छात्र
और तब कहीं कोई बच्चा निहारेगा अपनी आँखों से
पहली-पहली बार आसमान में इन्द्रधनुष।

कभी नहीं, कभी नहीं बुढ़ाएँगे हमारे सपने
न बुढ़ाएँगे हमारे शब्द, बुढ़ाएगी नहीं हमारी मानवीय उष्णता,
न हमारी अच्छाइयाँ, न कभी बुढ़ाएगी हमारी तत्परता
भूखे को रोटी और निराश्रित को
बसेरा देने की हमारी प्रवृत्ति ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना