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दुशमनी को ख़ुदारा भुला दीजिए / सुरेश चन्द्र शौक़

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दुशमनी को ख़ुदारा भुला दीजिए

हाथ अब दोस्ती का बढ़ा दीजिए


कोसने से अँधेरा मिटेगा कहाँ

हो सके तो दिया इक जला दीजिए


मैंने बेशक उठाई है आवाज़—ए—हक़

यह ख़ता है तो मुझको सज़ा दीजिए


क़तरा—क़तरा लहू का बढ़ा तो दिया

ज़ोंदगी अब तुखे और क्या दीजिए


देखना अम्न रहने न पाए कहीं

कोई झूटी ख़बर ही उड़ा दीजिए


आजकल की सियासत का दस्तूर है

आग सुलगे तो उसको हवा दीजिए


जो समझते हैं ख़ुद को बड़ा पारसा

उनके हाथों में ‘शौक़’! आइना दीजिए.

आवाज़—ए—हक़ = सत्य के लिए आवाज़ उठाना ; ख़ता=अपराध ; सियासत=राजनीति; पारसा=संयमी