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दूधिया दीवार / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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दूधिया शीशे की दीवार
चारों ओर है!
कैसे जाएगा उस पार
फोकस अन्दर से?
कैद सन्नाटे का आकार
बाहर शोर है!

यह देह नहीं --बैलून
यों हो फिसल रहा;
मन नहीं, घिसा नाखून
शीशा खुरच रहा;
गूँजे किसके नाम पुकार
दमघोंटू घर से?
अजब वातायन जालीदार
ध्वनि का चोर है!

जो लाये थे सोपान --
गुम्बद से लौटे;
भूले सारे अहसान
दरवाजे छोटे
आये अब कोई झंकार
कैसे बाहर से?
रतनबटुए का यह संसार
आदमखोर है!

लो, पंखे की भी हवा
गरम होने लगी;
खबरों की भी कल्पना
गूँजे, खोने लगी;
कैसे शीशे का यह द्वार
टूटे मर्मर से?
रुद्ध हो गई समय की धार,
सिर्फ हिलोर है!