भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दृग कोरों में गुप्त बावड़ी / अनामिका सिंह 'अना'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दृग कोरों में गुप्त बावड़ी, इनका वहीं ठिकाना है।
सुख दुख का कोई अवसर हो, दृगजल बस आ जाना है॥

भव सागर में प्राणी की जब, प्राण प्रतिष्ठा है होती।
सर्वप्रथम आँखें द्वय शिशु की, नींव अश्रु की हैं बोती॥
क्रंदन शिशु का सूचक माँ को, स्तनपान कराना है॥
दृग कोरों में गुप्त बावड़ी, इनका वहीं ठिकाना है।

घुटनों पर चलकर ही बचपन, जब सतरंगी आता है।
साथी संगी गिल्ली डंडा, में मतभेद कराता है॥
उस दृगजल का महज़ आँख में, झूठ-मूठ का ताना है।
दृग कोरों में गुप्त बावड़ी, इनका वहीं ठिकाना है॥

बाल्यवास्था पलक झपकते, उफ़ ओझल हो जाती है।
स्वप्न सजीले लिये प्रीति के, फिर तरुणाई आती है॥
प्रेम चषक के इर्द-गिर्द ही, इनका ताना बाना है।
दृग कोरों में गुप्त बावड़ी, इनका वहीं ठिकाना है॥

अखिल ग्रहस्थी का कंधों पर, अब बोझा है आ जाता।
करते-करते किंतु परिश्रम, मानव घुटनों पर आता॥
पीड़ा की गहवर गहराती, नित्य कमाना खाना है।
दृग कोरों में गुप्त बावड़ी, इनका वहीं ठिकाना है॥

नित्य कलपते जीवन बीता, अंतस्थल तो रीता है।
रोता आया हाय जगत में, छद्म हास ले जीता है॥
रिक्त विदायी की बेला में, श्वासों का तहखाना है।
दृग कोरों में गुप्त बावड़ी, इनका वही ठिकाना है॥

आना किंतु तुम्हारा मुझको, कम‌ ही अच्छा लगता है।
स्वाद भले नमकीन तुम्हारा, मन पर सच्चा लगता है॥
क्यों आते हो ज्ञात तुम्हें जब, गिरकर बस मिट जाना है
दृग कोरों में गुप्त बावड़ी, इनका वहीं ठिकाना है॥