भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दृष्टिपथ / मनोज कुमार झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूरा खेत भीग रहा
एक एक बीच भींग रहा
कोई होड़ नहीं...
       भींग रहे अँगुलियों से अँगुलियाँ बाँध

हर एक बारिश में मेरा नहान
       मैं देखना चाहता हूँ अँखुआ रहा एक एक बीज

खाट पर पड़ा रहूँ या खटूँ जा परदेस
किसी चक्की में पिसती रहती है मेरी दुनिया
खसती रहती है धूल मेरे रक्त में, मेरी दिखन पर, मेरी छुअन पर

कंठ में बैठ गई कहाँ कहाँ की धूल
चुभता ही नहीं साथी मछरी के कंठ का काँटा

सूरज की ललाई में डुबोनी हैं अँगुलियाँ
             तलवे क्यों छील रही समय की विषम जिह्वा!

बहुत श्रम है अभी बहुत श्रम
पानी है ओसाई देह और नहाई दीठि
जैसे भोर में पा लेते है
खुल रहे कँवल से छूट रहे भ्रमर।