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दे न गये बचने की साँस / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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दे न गये बचने की
साँस, आस ले गये।

रह-रहकर मारे पर
यौवन के ज्वर के शर
नव-नव कल-कोमल कर
उठे हुए जो न नये।

फागुन के खुले फाग
गाये जो सिन्धु-राग
दल के दल भरमाये
पातों से जो न छये।

गले-गले मिलने की,
कटी हुई सिलने की,
पड़ी हुई झिलने की,
आ बीती खड़े-खड़े।