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दोस्त चित्रकार हरिपाल के लिए / प्रकाश मनु

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जब मैं उद्विग्न
तुम साथ थे
जब-जब मेैं हुआ उद्विग्न
तुम साथ चले आए ऐन घर तलक
देर-देर थपथपाते कंधा...
(कंधे पर रही पुलकित डाल
मुलायम!)

हर लड़ाई में
तुम्हारे शब्द थे कि ढाल बनकर खड़े हो गए
ढाल आदमकद (विराट !)
बाज दफा तो मैं जा छिपा उसके भीतर
कि जब ढाल ऐसी हो पास-बिलकुल इस्पात
फिर डरूं क्यूं और किससे?

वहीं से शत्रु पर वार पर वार
पर वार-

मुझे तो लड़ना है -सिर्फ लड़ना
(बाकी तो तुम संभाल लोगे !)
मेरी सारी चोटें तो मुझ पर नहीं
तुम पर पड़ती है हरिपाल
हर महाभारत में क्या यही होता है-
हर युग में...
हर युग का क्या यही है सत्य ?
हम दुनिया के सबसे अच्छे लड़ने वाले हैं
अभी तक हम अपास में लड़ते रहे
अब दुश्मन से लड़ेंगे...

यह तुम नहीं-
तुम्हारे चित्रों की लकीरें कहती हैं
पूरी जिंदगी के सीखे हुए दांव
लडाइयां मोरचे
हर मोरचे पर हिल-मिलकर
संगीन की तरह
तन जाती है तुम्हारी लकीरें
बड़ी ही कड़ियल, बड़ी पुरजोर...
तुम्हारे रंगों की अजब सी अनबन
से उबलकर

निकलता है सत्य,
हवा में कंपन भर जाता है-

आसमानों की लाली, चीरता हुआ कोई चिल्लाता है
(और हिलता है रोम का साम्राज्य !)
हमारी शक्तियां छीन-छीनकर
लूटपाट कर तुम बने हो दैत्य

आदमखोर...
हमारा रक्त तुम्हारे होंठो की लाली...

हम अब यह चलने नहीं देंगे दैत्य
हम तुम्हें मारेंगे नहीं जान से
बस, तुम्हें फिर से बना देंगे आदमी

और सुन लो कि हम भी खच्चर नहीं
कि जब चाहो कस लो सवारी
अब आदमी हैं, आदमी...
हम गुलाम नहीं, आजाद है...!!
-कहता है स्पार्टकस तुम्हारा
धीमी मगर सुती हुई आवाज में
कहता है स्पार्टकस
रोम साम्राज्य की ताकत पर हंसता
...और भीतर कुछ उबलता है

तुम्हारी मुसकराती आंखे
कहती हैं-बड़ी ही यकीन से भरी-
हां, यह सच है !
कि कला तुम्हारी-विरूप जिंदगी पर
रंगों की चोट पर चोट पर चोट...!

तुम चित्रकार नहीं लड़ाका हो हरिपाल
तुम चित्रकार से ज्यादा लड़ाका हो हरिपाल
नहीं, नहीं-तुम तो हो लड़ाका चित्रकार...
रंग तुम्हारे दोस्त हैं
बड़े ही जिद्दी अभिमानी मित्र
लकीरें-
लड़ाई के नक्शे ...

अक्सर जब कभी फंसा हूं-जहां कहीं
फास लिया जाता हूॅं (बुरी तरह धर-पकड़ में !)
याद आती है तुम्हारी बातें
अलग-अलग संदर्भो मं कही
(बड़ी ही दमदार !)

याद आती है कि जैसे
हरे-हरे पत्तों की थरथराहट
उतरती चली आय दिल में !

और गांठ खुल जाती है अचानक
और रास्ते निकल आते हैं
तहखानों से बाहर ही हरियाली तक ...
और मैं नंगा दौड़ पड़ता हूं
नदियों का पानी
उछालता दोनों हाथ से
धूप पत्तियों और हरियाली के नशे में धुत्त !

और मैं खुश हूं
कम से कम एक है महानगर में
जिसके आगे किसी भी कमजोर क्षण में
कपड़े उतारकर
दिखा सकता हूं घाव
और मुझे शर्म नहीं आएगी।