भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 3 / रसलीन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सीप श्रवन या रमनि की, कैसे होंय समान।
जा प्रसंग तजि मुकुतगन, या में बसे निदान।।21।।

मुकुत भये घर खोइ के, बैठे कानन आय।
अब घर खेवत और के, कीजे कौन उपाय।।22।।

जटित तरौना श्रवन में, यह बिधि करत विलास।
पिता तरणि कीनो मनो, पुत्र करन घर बास।।23।।

करन फूल दुति धरन बिबि, करन लसत इहि भाय।
मनो बदन ससि के उदै, नखत दुहूँ दिसि आय।।24।।

ऐंठे ही उतरत धनुष, यह अचरज की बान।
ज्यों ज्यों ऐंठति भौं धनुष, त्यों त्यों चढ़त निदान।।25।।

कारे अनियारे खरे, कटकारे के भाव।
झपकारे बरुनी करत, झप झप कारे धाव।।26।।

अमी हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत, जिहि चितवत इकबार।।27।।

कारे कजरारे, अमल, पानिप टारे पैन।
मतवारे प्यारे चपल, तुव ढुरवारे नैन।।28।।

तुरँग दीठि आगे धर्यो, बरुनी दल के साथ।
तेरे चख मख कै जगत, कियो चहत हैं हाथ।।29।।

तन सुवरन के कसत यों, लसत पूतरी स्याम।
मनो नगीना फटिक में, जरी कसौटी काम।।30।।