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दोहा / भाग 6 / रत्नावली देवी

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चिनगारिहु रतनावली, तूलहिं देति जराय।
लघु कुसंग तिमि नारि को, पतिब्रत देत डिगाय।।51।।

छनहुँ न करि रतनावली, कुँलटा तिय को संग।
तनक सुधाकर संग सों, पलटति रजनी रंग।।52।।

धिकतिय सो परपति भजति, कहि निदरत जग लोग।
बिगरत दोऊ लोक तिहि, पावति बिधवा जोग।।53।।

एकहि जगदाधार तिमि, एकुहि तिय भरतार।
बचन सुजन को एकुही, रतन एकु जगसार।।54।।

घी का घट है कामिनी, पुरुष तपत अगार।
रतनावली घी अगिन को, उचित न संग बिचार।।55।।

बारबधू रथ चढ़ि चलै, धारि रतन सिंगार।
पैदर दीन सती सरिस, होहि न महिमागार।।56।।

रतनावली जिय जानि तिय, पतिब्रत सकति महान।
मृत पतिहू जीवित करयो, सावित्री सतिवान।।57।।

पति सनमुख हँसमुख रहति, कुसल सकल गृह काज।
रतनावलि पति सुखद तिय, धरति जुगल कुल लाज।।58।।

जो मन बानी देह सों, पियहि नाहिं दुष देति।
रतनावलि सो साधवी, धनि सुख जग जस लेति।।59।।

उद्यापन तीरथ बरत, जोग जग्य जप दान।
रतनावलि पति सेव बिन, सबहि अकारथ जान।।60।।