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दोहा / भाग 6 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम

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पाइन लखि लाली ललित, नाइन अति सकुचात।
चितै चितै मृद आंगुरिन, फिरि फिरि मीड़त जात।।51।।

सुखद सरद ऋतु पाइ कर, कुंजित सरनि सरोज।
चलि चलि दृगनि बिलोकि यह, प्रमुदित उदित मनोज।।52।।

कुबजा मन टेढ़ौ कियौ, वह टेढ़ेई गात।
कौन चलावत बीर अब, ब्रज की सीधी बात।।53।।

धरषत हर हरषित जगत, पूरित अवनि अकास।
साँची प्रीति पपीहरै, स्वाति बुन्द की आस।।54।।

कहा भयौ जौ लखि परत, दिन दस कुसुमित नाहिं।
समुझि देखि मन मैं मधुप, ए गुलाब वेआहिं।।55।।

कत गुमान गुड़हल करत, समुझि देखि मतिमन्द।
छोड़ि नलिन पीवत कहूँ अलिन मलिन मकरन्द।।56।।

पंकज के धौखै मधुप, कियौ केतकी संग।
अंघ भयौ कटंक बिधौ, भयो मनोरथ भंग।।57।।

बिटप तिहारे पुहप हम, सोभा देत बढाइ।
और ठौर सीसन चढ़त, पै रावरे कहाई।।58।।

मधुराई बैनन बसी, लसी पगन गति मन्द।
चपलाई चमकी चखनि, चखन लखौ नँद नंद।।59।।

सरस सलोनी सखिन सँग, लखि लालन सकुचात।
उझकि उझकि झाँकति झुकति, झिझकि झिझकि दुरि जात।।60।।