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द्वन्द्व / सुरेश सलिल

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ढेरों ढेर सीपियाँ थीं दवाख़ाने में पिता के
फूँककर जिनको बनाते थे भस्म वे

देखा करता था वह सब
अपने बचपन में,
लेकिन सीपियोंं के खोल में
जो जीव रहता बन्द
कैसे सांस लेता
करवटें कैसे बदलता
देख नहीं पाया उसकी बनक
पकड़ नहीं पाया उसका छन्द

द्वन्द्व कैसा
देखने न देखने के बीच!