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द्वितीया / अज्ञेय

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 मेरे सारे शब्द प्यार के किसी दूर विगता के जूठे :
तुम्हें मनाने हाय कहाँ से ले आऊँ मैं भाव अनूठे?
तुम देती हो अनुकम्पा से मैं कृतज्ञ हो ले लेता हूँ-
तुम रूठीं-मैं मन मसोस कर कहता, भाग्य हमारे रूठे!

मैं तुम को सम्बोधन कर मीठी-मीठी बातें करता हूँ,
किन्तु हृदय के भीतर किस की तीखी चोट सदा सहता हूँ?
बातें सच्ची हैं, यद्यपि वे नहीं तुम्हारी हो सकती हैं-
तुम से झूठ कहूँ कैसे जब उस के प्रति सच्चा रहता हूँ?
मेरा क्या है दोष कि जिस को मैं ने जी भर प्यार किया था,

प्रात-किरण ज्यों नव-कलिका में जिस को उर में धार लिया था,
मुझ आतुर को छोड़ अकेली जाने किस पथ चली गयी वह-
एक आग के फेरे कर के जिस पर सब कुछ वार दिया था?
मेरा क्या है दोष कि मैं ने तुम को बाद किसी के जाना?

अपना जब छिन गया, पराये धन का तब गौरव पहचाना?
प्रथम बार का मिलन चिरन्तन सोचो, कैसे हो सकता है-
जब इस जग के चौराहे पर लगा हुआ है आना-जाना?

होगी यह कामुकता जो मैं तुम को साथ यहाँ ले आया-
किसी गता के आसन पर जो बरबस मैं ने तुम्हें बिठाया,
किन्तु देखता हूँ, मेरे उर में अब भी वह रिक्त बना है,
निर्बल हो कर भी मैं उस की स्मृति से अलग कहाँ हो पाया?

तुम न मुझे कोसो, लज्जा से मस्तक मेरा झुका हुआ है,
उर में वह अपराध व्यक्त है ओठों पर जो रुका हुआ है-
आज तुम्हारे सम्मुख जो उपहार रूप रखने आया हूँ
वह मेरा मन-फूल दूसरी वेदी पर चढ़ चुका हुआ है!

फिर भी मैं कैसे आया हूँ क्योंकर यह तुम को समझाऊँ-
स्वयं किसी का हो कर कैसे मैं तुम को अपना कह पाऊँ?
पर मन्दिर की माँग यही है वेदी रहे न क्षण-भर सूनी
वह यह कब इंगित करता है किस की प्रतिमा वहाँ बिठाऊँ?

नहीं अंग खो कर लकड़ी पर हृदय अपाहिज का थमता है।
किन्तु उसी पर धीरे-धीरे पुन: धैर्य उस का जमता है।
उर उस को धारे है, फिर भी तेरे लिए खुला जाता है-
उतना आतुर प्यार न हो पर उतनी ही कोमल ममता है!
शायद यह भी धोखा ही हो, तब तुम सच मानोगी इतना :

एक तुम्हीं को दे देता हूँ उस से बच जाता है जितना।
और छोड़ कर मुझ को वह निर्मम इतनी अब है संन्यासिनि-
उस को भोग लगा कर भी तो बच जाता है जाने कितना!
प्यार अनादि स्वयं है, यद्यपि हम में अभी-अभी आया है,

बीच हमारे जाने कितने मिलन-विग्रहों की छाया है-
मति जो उस के साथ गयी, पर यह विचार कर रह जाता हूँ-
वह भी थी विडम्बना विधि की यह भी विधना की माया है!
उस अत्यन्तगता की स्मृति को फिर दो सूखे फूल चढ़ा कर

उस दीपक की अनझिप ज्वाला आदर से थोड़ा उकसा कर
मैं मानो उस की अनुमति से फिर उस की याद हरी करता हूँ-
उस से कही हुई बातें फिर-फिर तेरे आगे दुहरा कर!

दिल्ली, 13 जनवरी, 1937