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धार मैँ धाय धँसी निरधार ह्वै जाय फँसी उकसी न अँधेरी / देव

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धार मैँ धाय धँसी निरधार ह्वै जाय फँसी उकसी न अँधेरी ।
री अँगराय गिरी गहिरी गहि फेरे फिरीँ न घिरीँ नही घेरी ।
देव कछू अपनो बसु ना रस लालच लाल चितै भईँ चेरी ।
बेगि ही बूड़ि गई पँखियाँ अँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी ।


देव का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।