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नंग-धड़ंग बच्चे / आरती 'लोकेश'

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हवाई-अड्डे पर उतर
मोहित सहसा कर गई
मिट्टी पर बरखा की बूँदों-सी
स्वदेस की गंध
फेफड़ों में भरने को
मादक अहसास
हृदय का उन्मादी स्पंदन
संगीत ढला मंद-मंद
निकल चलीं घर ओर
मेरे साथ-साथ
डग से डग मिलाती
पग-पग पर मचलतीं
बिसरी हुई यादें
नन्हीं-सी मुलाकातें
कही-अनकही बातें
सहेजी-सी सौगातें।
प्रवासी मन का चोर
होता रहा विभोर
जब याद आती
छज्जे से दिखती भोर
थाम कर छोर
घर से बाँधी डोर
दिनभर दाना चुग
हर साँझ शिथिल पंछी
विश्रांति चाह में
उड़ चलते नीड़ ओर।
राह में लुभाते
मेघ छाए गगन
ऊँचे विशाल भवन
सुरभित पवन
हवेली पुरानी
हरियाली सुहानी
क्रिकेट के मैदान
टूटा-बिखरा सामान
नंग-धड़ंग बच्चे
मारते झपट्टे
चूती थीं छत जहाँ
दूर झोंपड़-पट्टे।
रिमिझिम फुहार
लालबत्ती पर
रुकती कार
वह भीगा बच्चा
नंगे निज तन पर
हाथ मलता जाता था
शरीर के मैल को
धोता था
या बढ़ाता था
कुछ दान करने को धर्म नाम करने को
पुण्य काम करने को
पसीजते दिल से
पास उसे बुलाकर
हाथ जेब में डालकर
कुछ सिक्के निकालकर।
उलटे भी
पलटे भी
फैलाए भी
छाँटे भी
डॉलर थे
यूरो थे
पोन्ड्स थे
फ़्रैंक थे
रुबल, रियाल
दिरहम, दीनार
सिक्का एक भी
हाथ पड़ा नहीं
जिसपर लिखा हो
भारत सरकार
समझ से परे था
कि ये ही अभागे हैं
या मैं लाचार।