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नज़्ज़ारा-ए-जमाल ने सोने नहीं दिया / रेहाना रूही

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नज़्ज़ारा-ए-जमाल ने सोने नहीं दिया
शब भर तिरे ख़याल ने सोने नहीं दिया

पहले नवेद-ए-वस्ल मिरी नींद ले उड़ी
फिर नश्शा-ए-विसाल ने सोने नहीं दिया

जिस रोज़ उस के झूठ की सच्चाईयाँ खुलीं
सुक़रात की मिसाल ने सोने नहीं दिया

किस ख़ूब-सूरती से जुदा कर दिया हमें
दुश्मन के इस कमाल ने सोने नहीं दिया

जो भीख माँगते हुए बच्चे के पास था
उस कासा-ए-सवाल ने सोने नहीं दिया

शब भर मैं जागती रही जिस रंज के सबब
दिन को भी उस मलाल ने सोने नहीं दिया

कितनी थकन सफ़र की थी वापसी की शाम
इस शौक़-ए-अर्ज़-ए-हाल ने सोने नहीं दिया

‘रूही’ मैं ख़्वाब-ए-इश्क़ से जागी तो उस के बाद
कितने ही माह ओ नाल ने सोने नहीं दिया