भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नवाह-ए-जाँ में कहीं अबतरी सी लगती है / 'सुहैल' अहमद ज़ैदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नवाह-ए-जाँ में कहीं अबतरी सी लगती है
सुकून हो तो अजब बे-कली सी लगती है

इक आरज़ू मुझे क्या क्या फ़रेब देती है
बुझे चराग़ में भी रौशनी सी लगती है

गई रूतों के तसर्रूफ़ में आ गया शायद
अब आँसुओं में लहू की कमी सी लगती है

उसी को याद दिलाता है बार बार दिमाग़
वो एक बात जो दिल में अनी सी लगती है

कि रोज़ एक नया गुल खिलाती रहती है
ये कायनात किसी की गली सी लगती है

कभी तो लगता है गुमराह कर गई मुझ को
सुख़न-वरी कभी पैग़म्बरी सी लगती है

जनाब-ए-शैख़ की महफ़िल से उठ चलो कि ‘सुहैल’
यहाँ तो नब्ज़-ए-दो-आलम रूकी सी लगती है