भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं-नहीं, भूकम्प नहीं है / महेश अनघ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं नहीं, भूकंप नहीं है
नहीं हिली धरती ।

सरसुतिया की छान हिली है
कागा बैठ गया था
फटी हुई चिट्ठी आई है
ठनक रहा है माथा
सींक सलाई हिलती है
सिंदूर माँग भरती
हाक़िम का ईमान हिला है
हिली आबरू कच्ची
भीतर तक हिल गई
जसोदा की नाबालिग बच्ची
पिंजरे में आ बैठी है
चिड़िया डरती-डरती ।

मंदिर नहीं हिला
चौखट पर मत्था काँप रहा है
नंगा भगत देवता की
इज़्ज़त को ढाँप रहा है
हिलती रही हथेली
तुलसी पर दीवट धरती
सूरज का रथ हिला
चंद्रमा का विमान हिलता है
बिना हाथ-पैरों का देखो
आसमान हिलता है
ऐसे में पत्थर दिल धरती
हिलकर क्या करती ।