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नहीं के इश्क़ नहीं है गुल ओ सुमन से मुझे / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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नहीं के इश्क़ नहीं है गुल ओ सुमन से मुझे
दिल-ए-फ़सुर्दा लिए जाता है चमन से मुझे

मिसाल-ए-शम्मा है रोना भी और जलना भी
यही तो फ़ाएदा है तेरी अंजुमन से मुझे

बढ़ी है यास से कुछ ऐसी वहशत-ए-ख़ातिर
निकाल कर ही रहेगी ये अब वतन से मुझे

अज़ीज़ अगर नहीं रखता न रख ज़लील ही रख
मगर निकाल न तू अपनी अंजुमन से मुझे

वतन समझने लगा हूँ मैं दश्त-ए-ग़ुर्बत को
ज़माना हो गया निकले हुए वतन से मुझे

मेरी भी दाग़-ए-जिगर मिसल-ए-लाला हैं रंगीन
है चश्मक उस गुल-ए-ख़ूबी के बाँकपन से मुझे

छुपा न गोशा-नशीनी से राज़-ए-दिल ‘वहशत’
के जानता है ज़माना मेरे सुख़न से मुझे