भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं जरूरत पड़ी / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं जरूरत पड़ी
बंधु रे
हमें कहारों की

मीत हमारे प्राण
गीत के तन में
रमते हैं
पथ में मिलत
गीत जहाँ
पग अपने थमते हैं
नहीं जरूरत
हमने समझी
श्रीफल, हारों की

हमें स्वयं के
कीर्तिकरण की
बिल्कुल चाह नहीं
थोथे दम्भ
छपास मंच की
पकड़ी राह नहीं
नहीं जरूरत
पड़ी कभी रे
कोरे नारों की

हमें हमारी
निष्ठा ही
परिभाषित करती है
कवि को तो
बस कविता ही
प्रामाणिक करती है
नहीं जरूरत
हमें बंधु रे
पर उपकारों की