भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नाइट लैंप / तरुण भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्याह अंधेरों की दुनिया में
सकुचाता दीखता जो नाइट लैंप
तमाम सपनों से अलहदा
मगन अपनी मद्धम रौशनी में
डटा हुआ स्याह अंधेरे प्रेत से।
दिखता भद्र जनों सा
पर उनसे बेहद विलग
न बंधे होते उसके हाथ
न सकुचाता
न मुस्कुराता नकली
न खिसियाता
न ही यह भय
कि कहीं बहिष्कृत ही न कर दिया जाय
अंधेरों की समभाव दुनिया से।
साक्षात्कार बोर्ड के सामने
सकुचाते, होते आत्मग्लान
नाइट लैंप एक बेरोजगार
जो कबका जान चुका
कि दुनिया को उसका होना पता नहीं चलना
कि उसके बुझ जाने से
कोई खलल नहीं पडना
अंधेरों में फैलती
नींद और झूठे सपनों
की काहिल दुनिया पर।
उसकी जाति में बरसों से षामिल हैं-
अबूझमाड के अंधेरे के प्यार में
स्याह पगडण्डी पर चलती कोई टॉर्च।
रेल के बेख़बर मुसाफिरों की मोहब्बत में दमकता
कोई सिग्नल तन्हा पटरियों पर।
कोई बिजली का लट्टू किसी मचान पर
गाँव से बहुत दूर
फसल के इष्क में किसान की नींद पर।
हड्डी, मिट्टी, राख के प्रेम में
कब्र पर बूँद-बूँद अपनी रौषनी का मोम।
जवान होती लडकी को वर्जित सपनों में
किसी दमकते मर्दाना जिस्म सा
रौषन, रौषन, रौषन।
देखो-देखो किस तरह तो उतर आई है
नाइट लैंप की कंपति झिझकति मद्धम आभा
कस्बे की वैश्या के चेहरे पर
बेतस्दीक ज़िद होकर दमकती।
दमकता कोलाहल बिना।
नींदों पर काँपता।
पर्दे पर डोलती उसकी आभा देख गाता है कोई झींगुर।
चाँद डरता-सा गुजरता है चुपचाप छत के ऊपर से।
दमकता है जब रात के बिस्तर पर
स्त्री आँख भर घूर लेती है आदमी की नग्न देह।
फर्ष पर यूँ ही तो नहीं उसकी आभा का चकŸाा
रात के कमरे में इंसान के होने को जलता है वह।
जलता है अंधकार की भाषा में
गहन अंधेरों से उसकी गुफ़्तगू गुलजार करती है
बेगैरत ख़ामोश कमरों को, पूरी रात।
वे जो जागते थे सारी रात
खो चुकी थी जिनकी नींद
दगा दे गये थे जिनके सपने
उनकी बातों में वही था।
रात के एकांत में
वीरान बिस्तरों पर दम तोडती देहों का गवाह
वही था, वही था।
नाइट लैंप की बातें
षयनकक्ष की दीवारों पर
त्वचा में गोदने के षब्दों-सी जज्ब
बेखयाली के दौर में
बाँचने रौशनी का किस्सा।
भयाक्रांत दौर में
जो धडकाती रही
मासूम बच्चों-औरतों को
वही
बस वही
गोल घेरे में दमकती बेहद नाजुक
जीरो वॉट के बल्ब से भी फूट पडती जो
कितनी कम
पर पूरी-पूरी रात
कांपती, पर स्थायी
ढंके बंद भेदकर, तोडकर निकल आती जो बाहर
रौशन न माने जाने पर भी
जो बेझिझक गुनती
अपनी अत्यल्प आभा।
औंधा पडा है सूरज धरती के पीछे।
अंधेरी सडकों पर हैं आदमखोर।
बंदूक छिपा चुपचाप कहीं सोया है
रात का मोहल्ले का चौकीदार।
मुँह फाड बाहर निकल आये हैं कालरात्रि के रदनक।
रक्त की तलाष में घूमता है ड्रैकुला और कबरबिज्जू।
अंधेरे में पसरी नीम की प्रेत शाखों पर इत्मिनान से बैठा है हैवान।
काँपते तारे खींच रहे हैं बादल की चादर मुँह तक।
सन्नाटे की कब्र में सो चुकीं आवाजें।
डोलता है डराता चिर अंधत्व।
बेभरोसे यतीम अंधेरे घरों में
जलता है,
जलता है सिर्फ़ नाइट लैंप।