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नाहक जगा दिया / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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सपने देख रहा था मीठे
मैं गहरी निद्रा में सोया
नाहक तुमने मुझे जगा कर
मेरे सपने भंग कर दिए।

मैंने तो सोचा था मेरी
धरती से सोना उपजेगा;
धरती की मिट्टी में सोने
की सीता का कलश मिलेगा।

पर न मिला वह स्वर्ण-कलश ही
मिला मुझे केवल अपयश ही
नाहक बजा-बजा दुंदुभियाँ
धनुष-यज्ञ-प्रण भंग कर दिए।1।

मैंने भेजा था, तुमको तो
अपना प्रतिनिधि रूप समझ कर
था मुझको विश्वास, सिद्ध-
होगे तुम अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर।

पर पाते ही तुम सिंहासन
बने, द्रौपदी को दुःशासन;
धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र कर
सब विश्वास पतंग कर दिए।2।

आजादी का अर्थ नहीं यह
है-मनमाना काम करे हम;
आजादी का अर्थ कि-
मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनें हम।

किंतु देख करतूत तुम्हारी
आँखें नीची हुई हमारी
तुमने सारे सभा-मंच ही
होली के हुड़दंग कर दिए।3।

मंदिर थे मंदिर, मस्जिद थी
मस्जिद, गुरुद्वारे गुरुद्वारे;
गिरिजाघर गिरिजाघर थे सब
पावन देवस्थान हमारे।

लेकिन तुमने राजनीति का
खुद अपनी ही हार-जीत का
बना अखाड़ा दिया इन्हें भी
सभी सुसंग कुसंग कर दिए।4।

चित्र बनाना सोचा था जो
मातृभूमि का मैंने मन में,
उसे लगाना, उसे सजाना
सोचा था घर-घर, आँगन में।

तुमने ही दी तोड़ तूलिका
मिला रंगों में दी मधूलिका;
मेरे सपनों के चित्रों के
रंग सभी बदरंग कर दिए।5।

20.5.85