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नियति-नियमन / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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नहीं जब रहता रंजन-योग्य
तमोमय रजनी का संभार,
राग-रंजित ऊषा उस काल
खोलती है अनुरंजन-द्वार।
नहीं जब रह जाता कमनीय
तारकावलि तम-मोचन-काम,
दमकता है तब दिव के मधय
दिवस-मणि समणि लोक ललाम।
बहुत जब कर देता है तप्त
धारा को तप-रितु का उत्ताप,
तपन-भय कर देता है दूर
पयद तब बरस सुधा-सम आप।
मलिनतामय बन गये दिगंत,
बढ़ गये जल प्लावन का त्रस।
बनाता है भूतल को भव्य
समुज्ज्वल सुंदर शरद-विकास।
बहुत कंपित करता है शीत
जब शिशिर को दे शक्ति महान,
जब हुए परम प्रबल हिम-पात
अवनि-तल बनता है हिमवान।
दलकने लगते हैं सब लोग,
काँप जब उठता है संसार,
मंद पड़ता है जीवन-सोत,
विशिख-विरहित बनता जब मार।
तब लिये कर में कुसुम-समूह,
मलय-शिर पर रख सौरभ-भार,
उमगता आता है ऋतुराज
कर नवल-जीवन का संचार।
कभी होने लगता है लाल,
कभी नभ-तल रहता है नील,
समय पर होता है भव-कार्य,
नियति है कितनी नियमनशील।