भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नियाग्रा / देसाकू इकेदा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: देसाकू इकेदा  » नियाग्रा

हे नियाग्रा !
हे भव्य निर्झर !
कैसा विराट है तेरा दर्शन !
लाखों धाराएं मिल रहीं गरजते जल प्रपात में,
बिखरती, उछलती, उमड़ती !
समाहित होती निसीम प्रवाह में .
भीगी चट्टानों की काया पर चमचमाता सूर्य का प्रकाश .
दूरस्थ चोटियाँ आच्छादित कुहासे से !
प्रवाह का तीव्र आवेग कम्पित करता धरती के अन्तःस्थल को
प्रभावित करता झकझोर देता हर अस्तित्व को .
अबाध बढ़ता, रुकता न एक पल .
किनारे खिले सुन्दर फूल और मृणाल भी
लगते कम्पित, भयभीत !
मैंने देखा यह अनंत असीम गर्जन .
मंत्रमुग्ध मैंने देखा प्रकृति के भव्य वैभव को
जो जीवन के अनंत प्रवाह की भाँती
प्रकट होता, रहता स्पंदित, झंकृत !

अनुवादक: मंजुला सक्सेना