भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निर्वासन / रेखा चमोली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सबसे पहले मेरी हँसी गुम हुयी
जो तुम्हें बहुत प्रिय थी
तुम्हें पता भी न चला

फिर मेरा चेहरा मुरझाने लगा
रंग फीका पड गया
तुमने परवाह न की

मेरे हाथ खुरदुरे होते गए दिन प्रतिदिन
तुम्हें कुछ महसूस न हुआ

मेरा चुस्त मजबूत शरीर पीडा से भर गया
तुम्हें समय नहीं था एक पल का भी

मैंने शिकायतें की, रूठी, चिढी
तुमने कहा नाटक करती है

मेरी व्यस्ताएं बढती गयीं
तुम्हारी तटस्थता के साथ

अब मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं
कोई दुख या परेशानी नहीं
पर इस बीच तुम
मेरे मन से निर्वासित हो गए।