भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नीम तले / बुद्धिनाथ मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर दोपहर लगी
अलसाने नीम तले
कौवे लगे पंख खुजलाने
नीम तले ।
 
सिर पर पसरी छाँह लगी हटने
ताल-नदी के होठ लगे फटने
हवा लगी अफ़वाह उड़ाने
नीम तले ।

टहनी-टहनी सूख हुई काँटा
खेतों में फैला फिर सन्नाटा
अंग-अंग फिर लगे पिराने
नीम तले ।

चैता आँके रेख महावर की
खलिहानों को याद आए घर की
आँचर लगे नयन उलझाने
नीम तले ।