भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न आद्यन्त मेरा / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय की सरित में लिये नाव तन की
चला आ रहा हूँ, चला जा रहा हूँ।

न है ज्ञात मुझको कि कब से चला हूँ
कहाँ से चला हूँ, पहुँचना कहाँ है;
न है ज्ञात यह भी कि जिस धार में मैं
चला, आदि औ’ अंत उसका कहाँ है।

मगर नाव खेता हुआ मैं निरन्तर
चला आ रहा हूँ, चला जा रहा हूँ॥1॥

हुई शीर्ण यदि नाव है एक, तो ले
नयी दूसरी नाव पड़ा हूँ उसी क्षण;
उसे भी दिया त्याग, देखा कि जब वह
हुई जीर्ण औ’ शीर्ण, जर्जर-पुरातन।

इसी भाँति अविरल नये रूप धरता
चला आ रहा हूँ, चला जारहा हूँ।2।

मिले गर्त गहरे, मिली आँधियाँ भी
मुझे नाव खेते इसी धार में हैं;
मगर बढ़ स्वयं उर्मियों ने इसी की
लगाया मुझे वक्ष से प्यार में है।

यही जिन्दगीहै जिसे गुनगुनाता
चला आ रहा हूँ, चला जा रहा हूँ।3।

नहीं एक मैं चल रहा इस सरित में
सभी सृष्टि ही इस तरह चल रही हैं,
किसी ज्योति के जगमगाते दीयों से
भरी थाल-सी तैरती लग रही है।

उसी थाल का मैं दीया एक चलता
बला आ रहा हूँ, चला जा रहा हूँ।4।

अजन्मा, नहीं मानता जन्म को मैं
अमर हूँ, नहीं मानता मृत्यु को भी;
प्रकृति के विविध तत्व मिल, धर विविध रूप
हैं रच रहे खेल सारा स्वयं ही।

उसी खेल को खेलता मुस्कराता
चला आ रहा हूँ, चला जा रहा हूँ।5।

न बहना रुकेगा समय की सरित का
न मैं ही रूकूँगा, न नौका रुकेगी;
भरी विश्व में शक्ति अक्षय-अनश्वर
न जिससे कभी सृष्टि की गति रुकेगी।

‘अहं ब्रह्म’ ‘सत् चित्’ न आद्यन्त मेरा
चला आ रहा हूँ, चला जा रहा हूँ।6।

1.8.76