भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न इस गली में न उस रहग़ुज़र में देखते हैं / 'महताब' हैदर नक़वी
Kavita Kosh से
न इस गली में न उस रहग़ुज़र में देखते हैं
उसे फ़साना-ए-शाम-ओ-शहर में देखते हैं
वो इक ख़्वाब पुराना कि जिसको हम अक्सर
किसी मुफ़ारक़त-ए-ताज़ातर में देखते हैं
तवील शब की सियाही में इक सितारा-ए-शौक
उसी की ज़िन्दगी-ए-मुख़्तसर में देखते हैं
कभी कभी तो बहुत ही अजीब लगता है
कि लोग उसको जहान-ए-दिगर में देखते हैं
यही कि हौसले सब पश्त होते जाते हैं
यही कि अब उसे ख़्वाब-ओ-ख़बर में देखते हैं
वो ख़ाक ख़ाक का पैवन्द हो न जाये कहीं
सो हम भी उसको फ़रेब-ए-सहर में देखते हैं