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न इस गली में न उस रहग़ुज़र में देखते हैं / 'महताब' हैदर नक़वी

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न इस गली में न उस रहग़ुज़र में देखते हैं
उसे फ़साना-ए-शाम-ओ-शहर में देखते हैं

वो इक ख़्वाब पुराना कि जिसको हम अक्सर
किसी मुफ़ारक़त-ए-ताज़ातर में देखते हैं

तवील शब की सियाही में इक सितारा-ए-शौक
उसी की ज़िन्दगी-ए-मुख़्तसर में देखते हैं

कभी कभी तो बहुत ही अजीब लगता है
कि लोग उसको जहान-ए-दिगर में देखते हैं

यही कि हौसले सब पश्त होते जाते हैं
यही कि अब उसे ख़्वाब-ओ-ख़बर में देखते हैं

वो ख़ाक ख़ाक का पैवन्द हो न जाये कहीं
सो हम भी उसको फ़रेब-ए-सहर में देखते हैं