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न कोई उन के सिवा और जान-ए-जाँ देखा / मिर्ज़ा रज़ा 'बर्क़'

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न कोई उन के सिवा और जान-ए-जाँ देखा
वही वही नज़र आएगा जहाँ जहाँ देखा

बहिशत में भी उसी हूर को रवाँ देखा
यहाँ जो देख चुके थे वहीं वहाँ देखा

ख़िजान-ए-उम्र कुजा ओ कुजा बहार-ए-शबाब
फ़लक को रश्क हुआ कोई जब जवाँ देखा

गए जहान से जो लोग दो जहाँ से गए
किसी ने फिर न कभी अपना कारवाँ देखा

जलाया बज़्म में हर रोज़ शम्मा के मानिंद
हज़ारों बातें सुनाईं जो ब-ज़बाँ देखा

क़यामत आई ये तड़पा फ़िराक में ऐ ‘बर्क़’
न फिर ज़मीन को पाया न आसमाँ देखा