भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पंचम उमंग / रसरंग / ग्वाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सखी लक्षण (दोहा)

सन्निधान रहिबो करै, प्रभु-प्रभुनी के बाल।
समै रूप दपति को करै, सो सखि कहौ रसाल॥1॥
चार कर्म सखि के कहत, मंडन करन बखान।
उपालंभ सिक्षा करन, पुनि परिहास सुजान॥2॥

मंडना सखी, यथा (कवित्त)

प्रथम अन्हवाय चीर चुनि पहिराय भाय,
बेनी बनाय फूल गूँधनि गहत है।
माँग सीसफूल खोरि, कजरा सु नथ डारै,
पत्रावली करत, कपोलन महत है।
‘ग्वाल’ कवि बीरी ठोड़ी-बिंदु हार फूल-गेंद,
किंकनी महावर दै आनँद लहत है।
राई नोंन वारत, निहारत रहत मोहि,
सोरहों सिँगारन सिँगारत हत है॥3॥
सीसा सो अमल अंग-अंग चमकाय राखै,
ईंगुरी की एक सी भरत माँग जी की तू।
बाँक पटियान को रखै का बाँकी भौंहन पै,
खौरि का खिलावै, रेख न्यारी-यारी नीकी तू।
‘ग्वाल’ कवि अजब निकारै कोर सुरमा की,
गूँधनि सुमन की मैं ताकी तो सरीकी तू।
कहा-कहा वारों तेरी साजनि सिँगार किये,
अहा-अहा कैसी सज साजै सुंदरी की तू॥4॥

उपालम्भिका सखी, यथा

सिरस सुमन हू तें अति सुकुमार नारि,
भौंरन कों तापें तें सदा निबारियतु है।
ब्यारि के लगै तें लंक लचकि-लचकि बचै,
मंजुल मृनाल-तार, तापै वारियतु है।
‘ग्वाल’ कवि ऐसी सों न ऐसी केलि कीजियत,
सौंध्यित अतरन सीसी ढारियतु है।
तुम ही अनोखे भये, रसिक किसोर नये,
मालती (की) माल का मरोर डारियतु है॥5॥

शिक्षादायिनी सखी, यथा

सास के, जिठानी के, ननद के चरन बंद,
कंद से बचन बोलि, एरी बड़भागिनी।
प्रीतम जो चाहैं, जैसे-जैसे चाहैं, करिये सो,
सौतिन सभूँ हूँ सों प्रीतिपाँति पागिनी।
‘ग्वाल’ कवि कहै, ते बखाने ये सुने कि नाँहि,
कहत सभी जो ब्रजबालैं अनुरागिनी।
पीय जोई कहैं, सोई गहै, सदा सुखी रहै,
जाय पिया चाहै सोई नारि है सुहागिनी॥6॥

(सवैया)

कौन भई नहीँ रूपवती अरु, कौन पै आई न रीझ है जाकी।
कौन के कंठ पर्यो नहीॅ माल ह्वै, चाल यही जिन सीखी सदा की।
यों कवि ‘ग्वाल’ अनेकन कों, दगा दै नहिँ पूछत कौन कहाँ की।
भूलौ न कोऊ गोविंद के नेह पै, है यह चाँदनी चारि दिना की॥7॥

परिहासिका सखी, यथा (कवित्त)

जो जो बात पूछौं, सो सो साँची ही सुनैयो सब,
हँसि न बरैयो मति परम प्रतीति में।
सोवत में बसन रहन देत तो पै लाल,
या उतार डारत है, रंग रसरीति में।
‘ग्वाल’ कवि केलि में, पियारो तोहि जीत लेति,
या हराय देत तू, कलोल करि प्रीति में।
करिकै सुरति कहि, कामैं है सुरति तेरी,
सुंदर सुरति में कि रति विपरीत में॥8॥
पहले ही सोने सो सरीर सब सोभित हो,
तापर बसंती खास बसन बतायो है।
अंग लागी केसर सो, अब लों न जानी हुती,
खुलै खुसबोय के मरम यहू पायो है।
‘ग्वाल’ कवि रावरे बसंती या कपोल पर
कंत ने चुभायो दंत, गजब सुहायो है।
मानो पुखराज की नवीन ये जमीन पर,
मीनकेत जडिया ने मानिक बनायो है॥9॥

दूती लक्षण (दोहा)

दूतनु के व्यापार में, पारंगत जो होय।
तिय पिय मेलन हेतु वह, दूती कहिये सोय॥10॥
सो दूती द्वै भाँति की, संघट्टना है एक।
दूती बिरह निवेदना, कविजन करत विवेक॥11॥

संघट्टना दूती, यथा (कवित्त)

सोभित सँवरे सने, सुखमा समूल सुख,
सरस रसीले वे गसीले सील थोकदार।
चंचल चलाक चारु चोंपन चटक भरे,
चौंकत चमंकै चलैं सलज सरोकदार।
‘ग्वाल’ कवि मद में मतंग से मजे से मजे,
मैन मतवार अंग मीनन के सोकदार।
नूर भरे नमित न मूँदन न मूँदनौ,
नागरि नवेली के नसीले नैन नोकदार॥12॥
चातुरी के, पातुरी के, आतुरी के गुन बोये,
कोये जैतवार काम, सर की अनी के हैं।
प्याले हैं अमी के, प्रभा कंज की कमी के कर
खंजन हू फीके भये, मति सरसी के हैं।
‘ग्वाल’ कवि कहै वे जरैया सफरी के जी के,
नसा सरसी के लीके लालीह भली के हैं।
हैं न हरनी के, ऐसे हैं न हर नीके कहूँ,
जैसे हर नीके नैन मनहरनी के हैं॥13॥
कोऊ कहै बार सो, सिवार सो कहत कोऊ,
कोऊ कहै बार सो, सिवार सो कहत कोऊ,
कोऊ कंज तार सों बतावै निहसंक है।
मेरे जानि सिरफ लुनाई कों लपेट लाल
ताही लहक और लफनि होत बंक है।
‘ग्वाल’ कवि जो पै बेअधार को बहम बाढ़ै,
तो पै परतच्छ में प्रमान को न रंक है।
जैसे भूमि अंबर के बीच में न कोऊ खंभ,
तैसे लोललोचनी के अंक में न लंक है॥14॥
दूर ते दिया तें औ’ दिवाकर तें पास हू तें,
देखि-देखि हार्यो पै न दीख्यो रूप-भीर में।
हँसि-हँसि कहत परौसिनें निहारौ कहा,
हम हू थकी हैं तकि याही ततवीर में।
‘ग्वाल’ कवि कहै अनुमान में हमारे एक,
आयो है बिचार और कैसे धरों धीर में।
जैसे अखरान में अकार कों प्रमानियत,
तैसे लंक जानियत गोरी के सरीर में॥15॥
नखसिख रूप की जलाजली है सघनाई,
जंघ केलि नाभि-कूप आवै दरसन में।
हाथ में न आवै कटि केहरी दुबीचत हों,
उदर-सरोवर अपार है तरन में।
‘ग्वाल’ कवि कुच-कोक दूर कर बासन तें,
नैन ऐन मृग भरैं चौकड़ी चलन में।
जो पै तुम्हें सौख है सिकार ही सों प्यारे लाल,
तो पै क्यों न खेलौ तरुनी के तन-वन में॥16॥
सीस फूल बृषभान कुच कोरें तहखाने,
केस घन दुति बीज बरखा उदितु की।
अंबर अमल मुख मंजुल सरद ससी,
रूप की झलाझली बरफ हिम हितु की।
‘ग्वाल’ कवि मैन की तरंग रंग सिसिराई,
अधर कुसंुभ श्री बसंत संत जितु की।
मिलै एक साल में, सो लाल चलि लीजै हाल
बाल के सरीर में बहार षट्रितु की॥17॥
काम के कलोल के विमूछित नरन तिन्हें,
ललित कपोल गोल, सेब रंग रेल है।
अधर छुहारे, रसवारे बैन बिधि-बिधि,
किसमिस झूमके अँगूर भूर मेल है।
‘ग्वाल’ कवि लोचन बदाम है सुदाम जाके,
हरित रतन बैंदी पिसता की पेल है।
सेवन उचित नरदेवन अनोखी चोखी,
जेवन की मूल प्यारी मेवन की बेल है॥18॥
ये हो नंदलाल आज देख्यो मैं बिसाल ख्याल,
ह्वै गई खुस्याल ताको मन यह साखी है।
गोरे-गोरे उरज उतंगन पै तंग कसी,
नई नीली कंचुकी मिँही सुगंध चाखी है।
‘ग्वाल’ कवि तापै खुली गोटा की सफेद धारैं,
बीज बेल बिदुली सुन्हैरी अभिलाखी है।
गंग सिब सीस पै, सुनी ही सब लोगन पै,
प्यारी की त्रिबेनी सिव सीस करि राखी है॥19॥
येरी पिकबैनी बेनी ब्यालिन अजब तेरी
ओढ़नि के अंदर तें चोटहि चलावती।
डीठि की दसैया दैया, दुनी में अनोखी यह,
दौरे बिन, दूर ही तें, विष बगरावती।
‘ग्वाल’ कवि कहै कौन कुल की, कहाँ तें आई,
कौने उपजाई, थाह कछु नहिँ पावती।
मंद हास मंत्र कै बचाय लियो कान्ह तैने,
ना तो कोऊ छूतो ना, कलंकिन कहावती॥20॥
गोकुल गई क्यों है दीदार मोठ गोरी जाके,
बड़े-बड़े कुल की दही हैं कान्ह ताके तें।
मति घबरावै, मैं समोसे तोहि मेलि दैहौं,
जलदी कै मारियो न मठरी दुखा के तें।
‘ग्वाल’ कवि प्रेम तू पकौरी राखि मेरी प्यारी,
मन न कचौरी करि बिरह भभाके तें।
सेव तू सलाह मेरी, उठि चलि संग ऐ री,
आस ह्वै है पूरी केलि-कौतुक मजाके तें॥21॥
सावन सुहावन सनेह सरसावन ये
मंद-मंद बुंद बरसावन अभंग है।
बैठी तू अकेली, बिन कैली हे’लि अलबेली,
झूलिकै नवेली बेली, करै तरु संग हैं।
‘ग्वाल’ कवि गोरी-गोरी आँगुरी हथेरिन में,
मेंहदी ललाई लखि, दीपत अनंग हैं।
मेरे जान लाल कों, लियो तें मन हाथन में,
ताके अनुराग की उमंग ये सुरंग हैं॥22॥
उदर हिमाम जामें नाभिकुंड कमनीय,
हीय थली अँगीठी जटित मनिमाला की।
तन की सुगंध जाकी, अंबर अतर जानो,
उरजन सीस कसतूरी अंग आला की।
‘ग्वाल’ कवि मैन की उमंग सों अगिन गिन,
मिलन प्रसंग की सो लिपट दुसाला की।
अंग-अंग बाला के में गरम मसाला सब,
ये हो नंदलाला चलि लीजे मौज माला की॥23॥

(सवैया)

जो मुख मंजुल की है मयूख, लखी न सो सारद पूरन चंद में।
है अधरा में मिठाई अवादन, आवै सवाद सुधासने कंद में।
त्यों कवि ‘ग्वाल’ हँसीली के हाथन, बूँदैं लगी मेंहदी की सुछंद में
इंदु तें बैरि बिचारि मनो, अरबिंदन इंदुवधू करि बंद में॥24॥
कहा खेल लगे हौ अलेल लला, चलौ मेल कराऊँ परी सी नरी।
खरे ऊँचे उरोज करेरे खरे, तिन पै मुकतान की झूमै लरी।
कवि ‘ग्वाल’ अनूपम आनन की, जगी जोति जमातें परी पसरी।
कजरारी अन्यारी बरी अँखियाँ, मतवारी अजू पिछवारै खरी॥25॥

विरहनिवेदना दूती, यथा

मोहन सों मुसिकाय गई वह, मोहिनी मूरति रूप अगाधा।
भूलि गये बँसुरी धुनि ‘ग्वाल’, गऊ बछरा कल ना परै आधा।
चेटक सो कछु ह्वै गयो बीर, घरी-घरी बाढ़त ब्योग की बाधा।
लागि रही रटना यह येक, हहा जियदान है, दान दै राधा॥26॥

(कवित्त)

बाल कों बिसारिकै, बिलासी बनवारी लाल,
बैठो हौ बिदेस कौन भेष को रचावोगे।
ताके बिहागिन की झार झहरान लागी,
बढ़ी लहरान लागी, क्यों करि बचाओगे।
‘ग्वाल’ कवि कहन सँदेस मैं तो आई तुम्हें,
औ’ इक अँदेस ताहि कैसे परचावोगे।
सागर सुखैहैं, सातों दीप जरि जैहैं तब,
कैसें कान्ह कहौ अखैबर को बचावोगे॥27॥

दर्शन वर्णन (दोहा)

‘रसमंजरि’ में त्रय लिखे, स्वप्न चित्र साक्षात।
भाषा में चौथी कहत, श्रवन दरस बिख्यात॥28॥


स्वप्न दर्शन, यथा (कवित्त)

सोवत में साँवरे सलोने पिय आये सेज,
पूछैं सुख-समाचार, कैसी छबि साजी री।
कंचुकी उतारि, फिर सारी करी न्यारी उन,
दीप की उज्यारी भारी, लखि-लखि लाजी री।
‘ग्वाल’ कवि अंगनि सों अंग मेलि मसकी मैं,
चुंबनि सरस की में भयो जीव राजी री।
होती तो रसाइन पै, कित तें कसाइन सी
दीह दुखदाइन निगोड़ी नींद भाजी री॥29॥

चित्रदर्शन, यथा

प्रान प्यारे जब तें पधारे परदेस आली
तब तें न भेजी पाती, आवन तो कैसी री।
बाँसुरी बजावन की सुधि सरसान जैसी,
भोर ही तें देखन की तलफनि तैसी री।
‘ग्वाल’ कवि राम या चितेरिन की चीतो करै,
लिख दिखराई तसवीर इन ऐसी री।
वही रूप, वही रंग, वही अंग, वेही आँखें,
वैसी ही चितौन मुसिकान मृदु वैसी री॥30॥

साक्षात् दर्शन, यथा (सवैया)

सरसे सुख होय गये सब ही, जब तें पिय आय गये घर से।
बरसे घन घूमि घने घहरे, तुम्हरे बिन पावक से झर से।
गरसे कवि ‘ग्वाल’ लगे सुपने, भजि क्यों जी गये बिन ही अरसे।
हरसे अँग अंग हमारे अबै, जब से तुम आय हमें दरसे॥31॥

श्रवण दर्शन, यथा (कवित्त)

पतियाँ न भेजी, कछू बतियाँ न भेजी कहि,
छतियाँ जराय हाय, ऐसो दुख दयो री।
आई वही पुर तें बिचारी एक गोपी आज
जाही पुर, पीय ने, निवास जाय कीयो री।
‘ग्वाल’ कवि तानै कहि, कुसल बखानी छबि,
नखसिख वैसो ही सु वह चिरजीयो री।
रूप-रस पान में, कियो तो हुतो कान में री,
छायो अँखियन में औ’ सियरान हीयो री॥32॥

॥इत श्री रसरंगे ग्वालकवि विरचिते सखिदूतिकादर्शनवर्णनं नाम पंचमो उमंगः॥