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पखेरू सपनो के सुन्दर उड़ा उड़ा के गया / कुमार अनिल

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पखेरू सपनो के सुन्दर उड़ा उड़ा के गया
ये कौन नींद की टहनी हिला हिला के गया

लगा के उम्र घरोंदा बनाया जो हमने
नदी का एक ही रेला मिटा मिटा के गया

फिर आज शाम ढले ही मुंडेर पर दिल की
वो हाथ आस के दीपक जला जला के गया

हमारी आँख में आया था स्वप्न बन कर जो
गया तो आँखों को कितना रुला रुला के गया

वो अपनी डाल से टूटा हुआ था पत्ता जो
पता हमारा हमें ही बता बता के गया

हैं साक्षी वो नयन आँसुओं से भीगे हुए
कोई उन्हें मेरी सुधियाँ दिला दिला के गया

तुम्हारी झील सी खामोश जिन्दगी में 'अनिल'
ये कौन याद के पत्थर गिरा गिरा के गया