भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्थर जो मिल के रहते हैं / दिनेश जुगरान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस उजड़े पार्क की बेंच पर मैं रोज़ाना
शाम को बैठता हूँ और बैठने से पहले उसे
अपने हाथों से साफ़ करता हूँ पिछला दिन
हो जाता है ग़ायब और गूंगी हवाओं में डूबता सूरज
गीला लगता है

उस रास्ते पर मैं रोज़ाना घूमने जाता हूँ कोई
ख़ास वजह नहीं है सिवा इसके कि आँखें अभ्यस्त हैं
उन टूटी दीवारों की सुराखों से झाँकते पत्थरों की
ख़ामोशी से पत्थर जो मिल के रहते हैं पास-पास
उन्हें शायद नहीं आना है दुनिया में बार-बर
इसी बस्ती की आग में झुलसे थे वे
उन छतों पर भीगते थे पिछली बारिश में जब

उस उदास टूटी हुई खिड़की को छू कर ही लौटता हूँ
रोज़ाना जिस पर बैठी चिड़िया मेरे पहुँचते ही गुनगुनाती है

खंडहरों में बैठे कबूतर क्या सुनते हैं किसी को मालूम नहीं
फड़फड़ाकर पंख वे हँसते हैं या रोते क्या मालूम