भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पथ में आँखें आज बिछीं / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 पथ में आँखें आज बिछीं प्रियदर्शन! तेरा दर्शन पा के,
तोड़ बाँध अस्तित्व मात्र के आज प्राण बाहर हैं झाँके;

पर मानस के तल में जागृति-स्मृति यह तड़प-तड़प कहती है-
प्रेयस! मन के किरण-कर तुझे घेरे ही तो रहे सदा के!

1935