भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परशुराम और मैं / विजय कुमार पंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये एक नया संवाद था
पिता और पुत्र के बीच
चल रहा विवाद था

तुम कैसे पुत्र हो
जो बार-बार मेरी खिल्ली
उड़ाते हो
मेरे बात नहीं
सुनते और
अपनी ही चलाते हो
परशुराम भी एक
बेटा था
जिसने बाप को क्या मान दिया था
आदेश मिलते ही माँ का सर काट
लिया था ,

ये सुनकर बेटा चुप हुआ
फिर मुस्कुरा के
बोला, डैडी जनता हूँ,
मैं भी परशुरामजी को मानता हूँ
वो सचमुच में समझदार थे
अपने पिता की योग्यता के जानकार थे
उनको पता था
अगर वो माँ का शीश उड़ा देंगे
तो उनके बापू पुनः जुड़ा लेंगे

अगर ऐसा विशवास
मेरा आप पर हो जायेगा
तो निश्चिंत रहिये
डैड
ये बेटा,
अपना ही शीष आपके क़दमों में
चढ़ाएगा

ये संवाद
बहुआयामी अर्थों से
भरा था
मुझे लगा बेटे का तर्क
बिल्कुल खरा था