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पल भर ही दुलराया होता / सुमित्रा कुमारी सिन्हा

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पल भर ही दुलराया होता ।

आज न मेरे गीतों का जी दुख से यों भर आया होता ।


रुक जाती ये आँसू-धारें,

चुप होती ये विकल पुकारें,

सपनों की तृष्णा को तुमने क्षण भर ही बहलाया होता ।


मन-पंछी उड़ जाता नभ पर,

करता पार सरित,गिरि,सागर,

चंचु मिला टूटी शाखा पर थकित पंख सहलाया होता ।


शून्य डगर की पथिक न होती,

दु:ख-गेह की अतिथि न होती,

मेरा प्रतिपल धधकी ज्वाला से फिर यों न नहाया होता ।


जीवन की कुछ ममता होती,

सब सहने की क्षमता होती,

मेरी ऊसर-चाहों में मधुमास उतर हँस आया होता ।


द्वार-द्वार की करुण याचना,

आज न होती छल-प्रवंचना,

बेबस होकर मरु में अपना खंडहर यों न बसाया होता ।


पल भर यदि दुलराया होता ।