भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पश्चिम का स्वप्न / जोशना बनर्जी आडवानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस रात एड़ियों से उचक कर
देखा तो पाया शेक्सपियर
बैठा है गुमटी पर कमर पर
रोमियो जुलियट बाँधे
एक सौनेट का दिलफेंक
चुँबन उछाल फेंका मुझपर

दाऐं मेरे बैठा था गालिब
सिगड़ी फूँकता था अपने
कुछ दो एक कलाम से
घूरता था मेरी आँखो को
अपने आँखो के पारे से
तेज़ाब से लबरेज़ था तौबा

बगल वाले पेड़ पर उकड़ूँ
मार बैठा था मंटो
झुलसा देने वाली धूप से
भरा था काफिर
साफिया से ब्रेकअप कर
के आया था शायद

काफ्का बीमा की नई
पौलिसी लिये गर्दन के
ठीक पीछे से बोहेमिया का
प्रांतीय गीत गाता था
दोनो मुठ्ठी मे किस्सागोई लिये
मेरे करीब आना चाहता था

हवा की लपटों ने चूमा मेरे
बाऐं गाल को इश्क से
सुर्ख के निशां जा पहुँचे एक
मज़ार पर जहाँ उर्स मनाती
थी हीर और सारे प्रेमी अपने
उपनाम को राँझा लिखते थे

था कौन सा आसमां ये
जहाँ नीला नदारद था
सितारे मूर्छित थे
चाँद कोमा मे जाग रहा था
उल्का पिण्डों पर कविताएँ
जमी पड़ी थी हर तरफ
एक बादल डबडबाया था
ज़मीं मेरे प्रेमी के कँधों
से अधिक बलिष्ट थी
सप्तर्षि मंडल का शव
मेरी छाती से लिपटा था
तारकोल चिपका था ग्रहों
के जिस्मों पर गाढ़ा गाढ़ा
फरिश्ते रिश्वत माँगते थे
पूर्व का स्वप्न पश्चिम
मे खुला था ....
पिछली रात एक कविता
अधूरी रह गई थी
लहू सारा सूख चुका था
पूर्व कि स्वप्न पश्चिम
मे खुला था ....