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पसीने की गन्ध / शंकरानंद

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कुछ बातें देर तक गूँजती हैं
बिना पहाड़ और दीवार से टकराए
शोर में वह
चुपके से अपनी जगह बना लेती हैं और
बच जाती हैं हमेशा के लिए

बहुत से खर-पतवार के बीच
ऐसे ही पलता है
कोई अनजान मगर ज़रूरी पौधा
किसी फूल के लिए
किसी दाने के लिए
किसी छाया के लिए

हमें जिसकी प्रतीक्षा थी
वह ऐसे ही
एक-एक क़दम बढ़ाकर
पहुँचा है हमारे पास
धीरे-धीरे

कोई कन्धा मैं खोज रहा था
अपना सिर टिकाने के लिए
तब हिसाब लगा रहा था कि
मैंने किसी को
धकेल तो नहीं दिया आधी नीन्द में
अपने कन्धे से

यही होता है हर बार कि
अगर मैं स्वप्न देखता हूँ तो
सोचता हूँ कि
वे भी मेरे पसीने की गन्ध से भरे हुए हों ।