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पहने हूँ हार विदा बेला का / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / प्रयाग शुक्ल

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पहने हूँ हार विदा बेला का ।
पल-पल वह वक्ष से मेरे टकराए ।।
कुंज कुंज बहे हवा फागुन की,
मीठी सुगन्ध वह उसकी जगाए ।।
हर क्षण जगाए ।

शेष हुआ दिन और शेष हुआ पथ भी ।
मिली मिली छाया वन प्रान्तर में उसकी ।
मन में वह छाया और वन में वह छाया —
रह-रह लहराए, दिग्-दिगन्त छाए —
झलक झलक जाए ।

मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल