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पहले हिल-मिल के बिहीख़्वाह भी हो जाता है / मयंक अवस्थी

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पहले हिल-मिल के बिहीख़्वाह भी हो जाता है
फिर ये ग़म दिल का शहंशाह भी हो जाता है

जब उजालों की इनायत हो मेरी राहों पर
मेरा साया मेरे हमराह भी हो जाता है

कौन दुश्मन है ,भनक दोस्त को लगने मत दो
दोस्त दुश्मन की कमीगाह भी हो जाता है

कुछ तो है दैरो-हरम की भी सदाओं में कशिश
रिन्द इंसान का गुमराह भी हो जाता है

इश्क शादी की पनाहों का मुहाज़िर न हुआ
जिससे होना हो सरे-राह भी हो जाता है

उसमे जागा हुआ इंसान अगर सोया हो
मर्तबा कब्र का दरगाह भी हो जाता है

वो जो कतरा है समन्दर की सदा सुनने पर
अपने अंजाम से आगाह भी हो जाता है