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पाँचमोॅ सर्ग / अंगेश कर्ण / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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ब्रह्म मुहुर्तोॅ के बेला में
चम्पा गंगा सें चंचल छै,
तट से दूर हटी केॅ की रं
लहर उठै, की रं खलखल छै!

ऋषि शृंगी के आशिश जेन्होॅ
निर्मल धार बही रहलोॅ छै,
अंग देश रोॅ पुण्य बटोरी
सागर दिश गंगा बहलोॅ छै।

मंूगा-माणिक रं धरती पर
सोना केरोॅ महल-अटारी,
धर्म जहाँ उतरै छै आवी
हर्षित क्रम सें पारा-पारी।

मंत्र जहाँ वेदोॅ के संघरै
तंत्र जहाँ जन्मी केॅ ठाढ़ोॅ,
पुण्य, धर्म यश कभी घटै नै
यै सें कोय्यो कत्तो काढ़ोॅ।

ध्वजा उजरका फरफर लहरै
हर मंदिर के शीर्ष भाग पर,
जे देखी धरती नै खाली
गद्गद छै स्वर्गो तक ऊपर।

चिड़िया चुनमुन किसिम-किसिम के
फेरै छै गीतोॅ के जादू,
की वंशी ही कन्नौ बाजै
आकि बजाबै खंजड़ी साधू?

राजभवन सें निकली ऐलै
कर्ण तुरत्ते गंगा ओरी,
तब तां सूरज कुच्छू ऊपर
फेकै लाल रंगोॅ के होरी।

गंगा में छाती तां धँसलै
डुबकी दै दै स्थिर होलै,
”पिता, दान सें कभी डिगौं नैं“
बार-बार मुँह खोलै, बोलै।

”पिता, बतैलौ जे कुछ हमास
हमरो जन्म कथा केॅ पूरे,
ऊ मन केॅ दुःख पहुँचावै छै
टहकै जेना तन पर गूरे।“

”सूर्यवंश में हम्मे ऐलौं
चन्द्रवंश के लहू पुकारै,
दीनों के कुुछ बीच चलै छै
कोय कहूँ नै कभियो हारै।“

”लेकिन, कर्ण पिता सें पहिलंे
जग आलोकित ही करना छै,
जे रं दान किरिन के दै छौ
प्राण-दान तक दै मरना छै।“

”यै सें बढ़ियाँ की जे होतै
पूजा पर दौं दान कवच के,
की कवचे के, कुंडल के भी
रहतै मर्यादा ठो सच के।“

ई बोली केॅ कर्ण ध्यान में
पहुँची गेलै घंटो लेली,
दीन भाव केॅ मन-प्राणोॅ सें
दूर कहीं रेतोॅ में ठेली।

उठै पाँव नै सूर्य पिता के
ठमकी केॅ देखै छै सुत केॅ,
जे रं देखै कोय्यो बच्चा
कोय अनोखा रं अजगुत केॅ।

केन्होॅ दृश्य अनोखा छेलै
एक सूर्य सरंगोॅ पर छेलै,
एक सूर्य गंगा में धँसलोॅ
पूत-पिता एक्के रं भेलै।

मध्य दिवस तक ठाड़े रहलै
कर्ण वही रं गंगा बीचें,
बहतें रहलै लहर गांग के
कर्ण-हृदय के कुछुवे नीचें।

जखनी खुललै ध्यान कर्ण के
सम्मुख छेलै विप्र वहाँ पर,
मुस्की उठलै कर्ण हठाते
छुपलोॅ छेलै भेद कहाँ पर।

बोली पड़लै अनजाने रं
”विप्रदेव की चाहोॅ बोलोॅ,
तोहें अंगपति के सम्मुख
हिचकोॅ नै, माँगोॅ, मुँह खोलोॅ।“

”अंग देश के रोम-रोम ही
दान, दया, धर्मोॅ सें पोषित,
ओकरोॅ लेॅ तेॅ देव तुल्य ही
जे भी दीन, दलित छै शोषित।“

”अंग देश ऊ देश धरा पर
शरणागत केॅ तुरत शरण दै,
हाथ पसारी केॅ जे माँगै
भीख भला की, सिंहासन दै।“

”अंगदेस के कंकड़ियो तक
हीरा-मोती सें भी महंगोॅ,
वहौं वहौं सिंहासन समझोॅ
जहाँ-जहाँ मुट्ठी भर जग्घोॅ।“

”दान अंग के पूंजी छेकै
विप्र तोरा कतना टा चाही,
हिन्नें ओतना खुल्ला छाती
जतना तोरोॅ मन में हाही।“

”विप्र, चुरैबोॅ आरो के धन
या कि भेष धरी कुछ ऐबोॅ,
दोनों पाप, अधम कर्मे रं
हेनोॅ पैबोॅ भी की पैबोॅ।“

”आपनोॅ हित लेॅ दुसरा के धन
छल सें लेबोॅ, माँगी लेबोॅ,
पतित कर्म ई यहाँ नरोॅ के
आन घरोॅ के धोॅन चुरैबोॅ।“

”दै वाला के धन नै खरचै
ओकरौ में ई अंग देश छै,
ओकरा दै में की ई हटतै
जेकरोॅ कि ई विप्र-भेष छै।“

”विप्र श्रेष्ठ, बोलोॅ की चाही
भूमि, सिंहासन, हीरा, कंचन?
या पूरब, पश्चिम, उत्तर के
दक्खिन के ही राजसिंहासन?“

”कतना पावी केॅ खुश होवौ
अंगपति खाड़ोॅ छै, माँगोॅ,
सब कुछ लांघी केॅ ऐलोॅ छोॅ
तेॅ लज्जा की, लज्जो लाँघोॅ।“

वचन सुनी केॅ अंगपति के
विप्र-भेष में सुरपति काँपै,
भीतरे-भीतर कर्णोॅ केरोॅ
भावोॅ के गहराई नाँपै।

आखिर साहस बहुत करी केॅ
विप्र-भेष में इन्द्र सहमलोॅ,
बोली पड़लै इक झटकै में
”राखियोॅ कर्ण वचन सब कहलोॅ।“

”माँगै छी तोरा सें हम्में
तोरोॅ कुण्डल-कवच दान में,
कुछ आरो नै चाहौं हम्में
करोॅ यहेॅ बस विप्रमान में।“

”कवच-कुण्डलो माँगी केॅ तों
लेलेॅ छौ केकरो जीवन केॅ,
जों एकरै सें विप्रमान छै
तेॅ तेजौं प्राणोॅ रं धन केॅ।“

”अगर सुहाबै छल छौं तोरा
तेॅ हमरा ई धर्म कना नै?
दान-धर्म में कहाँ रोक छै
अगर पाप मंे जरो मना नै।“

”लेकिन एकटा बात सुनी ला
पाप कहूँ नै पुण्य कहाबै,
आरो पुण्य नै कोनो युग में
यश कॅे पावै में पछुआबै।“

”स्वर्ग धरा पर आवी माँगै
मुट्ठी भर सोना के माँटी,
तोहें नै जानै छोॅ कुछुवो
कर्ण-अंग रोॅ की परिपाटी।“

”जकरा जोगी केॅ रखलौं ऊ
सब्भे टा अरमानोॅ केॅ ला,
है ला, राखोॅ कवच-कुण्डलो
कर्णोॅ केरोॅ प्राणोॅ केॅ ला।“

एतना कही वही ठां कर्णे
कवच-कुण्डलो छीली लेलकै,
विद्रुप रं मुस्कान भरी केॅ
हाथोॅ में ऊ सौंपी देलकै।

कारोॅ भेलै सूर्य सरंग में
घोर अन्हरिया उपटी ऐलै,
रुधिर सनैलोॅ कर्ण-मुँहोॅ पर
तहियो भोर-भुरकवा खेलै।

विप्र-भेष में सुरपति गड़लोॅ
मूँ गोती केॅ गेलै लौटी
कवच-कुण्डलो लै हाथोॅ में
गड़लोॅ सब पापोॅ केॅ औंटी।