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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ६

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है शरद-व्योम-सा सुन्दर।
गुणगण तारकचय-मंडित।
कल कीत्तिक-कौमुदी-विलसित।
राकापति-कान्ति-अलंकृत॥9॥

उसके समान ही निर्मल।
अनुरंजनता से रंजित।
उसके समान ही उज्ज्वल।
नाना भावों से व्यंजित॥10॥

है प्रकृति-तुल्य ही वह भी।
नाना रहस्य अवलम्बन।
बहु भेद-भरा अति अद्भुत।
भव अविज्ञेय अन्तर्धान॥11॥

जग जान न पाया जिनको।
हैं उसमें ऐसे जल-थल।
जिसका न अन्त मिल पाया।
है अन्तस्तल वह नभ-तल॥12॥

कमलिनी
(11)

वही तुझे भा जाय भाँवरें जो भर जावे।
वही गले लग जाय जो मधुर गान सुनावे।
क्या है यह कमनीय काम तू सोच कमलिनी।
जो अलि चाहे वही रसिक बन रस ले जावे॥1॥

तन कितना है मंजु, रंग कितना है न्यारा।
बन जाता है खिले बहु मनोहर सर सारा।
कमल समान नितान्त कान्त पति तूने पाया।
क्यों कुरूप अलि बना कमलिनी! तेरा प्यारा॥2॥

कर लंपटता तनिक नहीं लज्जित दिखलाता।
काला कुटिल अकान्त चपल है पाया जाता।
अरी कमलिनी! कौन कलंकी है अलि-जैसा।
फिर वह कैसे वास हृदय-तल में है पाता॥3॥

खिली कली जो मिली उसी पर है मँड़लाता।
थम जाता है वहीं, जहाँ पर रस पा जाता।
कैसे जी से तुझे कमलिनी! वह चाहेगा
जिस अलि का रह सका नहीं अलिनी से नाता॥4॥

वह अवलोक न सका, नहीं अनुभव कर पाया।
इसीलिए क्या पति ने तुझसे धोखा खाया।
अलि को कर रस-दान और आलिंगन दे-दे।
क्यों कलंक का टीका सिर पर गया लगाया॥5॥

क्यों मर्यादा-पूत लोचनों में खलती है।
क्यों रस-लोलुप भ्रमर रंगतों में ढलती है।
विकसित तुझे विलोक प्रफुल्लित जो होता है।
क्यों तू ऐसे कमल को कमलिनी! छलती है॥6॥

रज के द्वारा उसे नहीं अंधा कर पाती।
चम्पक-कुसुम समान धाता है नहीं बताती।
जो न कमलिनी वेध सकी काँटों से अलि को।
कैसे तो है वदन कमल-कुल को दिखलाती॥7॥

रस-लोलुप है एक अपर रखती रस-प्यारेला।
दोनों ही का रंग-ढंग है बड़ा निराला।
मधुकर से क्यों नहीं कमलिनी की पट पाती।
है यह मधु-आगार और वह मधु-मतवाला॥8॥

मनोवेदना
(12)
चौपदे

थे ऐसे दिवस मनोहर।
जब सुख-वसंत को पाकर।
वह बहुत विलसती रहती।
लीलाएँ ललित दिखाकर॥1॥

आमोद कलानिधि सर से।
था तृप्ति-सुधा बरसाता।
आकर विलास-मलयानिल।
उसको बहु कान्त बनाता॥2॥

पा सुकृति सितासित रातें।
वह थी अति दिव्य दिखाती।
रस-सिक्त ओस की बूँदें।
उसपर मोती बरसाती॥3॥

अब ऐसे बिगड़ गये दिन।
जब है वह सूखी जाती।
रस की थोड़ी बूँदें भी।
हैं सरस नहीं कर पातीं॥4॥

बहु चिन्ताओं के कीड़े।
हैं नोच-नोचकर खाते।
घिरकर विपत्तिक के बादल।
हैं दुख-ओले बरसाते॥5॥

ऑंधियाँ वेदनाओं की।
उठ-उठ हैं बहुत कँपाती।
यह आशा-लता हमारी।
अब नहीं फूल-फल पाती॥6॥

अन्तर्नाद
(13)
चौपदे

करुणा का घन जब उठकर।
है बरस हृदय में जाता।
तब कौन पाप-रत मन में।
है सुरसरि-सलिल बहाता॥1॥

जब दया-भाव से भर-भर।
है चित्त पिघलता जाता।
तब कौन मुझे दुख-मरु का।
है सुधा-स्रोत कर पाता॥2॥