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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ८

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.पतिपरायणा
(15)
 
प्यारे मैं बहुत दुखी हूँ।
ऑंखें हैं आकुल रहती।
कैसे कह दूँ चिन्ताएँ।
कितनी ऑंचें हैं सहती॥1॥

मन बहलाने को प्राय:।
विधु को हूँ देखा करती।
पररूप-पिपासा मेरी।
है उसकी कान्ति न हरती॥2॥

शशि की कमनीय कलाएँ।
किसको हैं नहीं लुभाती।
किसके मानस में रस की।
लहरें हैं नहीं उठाती॥3॥

पर कान्त तुम्हारा आनन।
जब है आलोकित होता।
जिस काल कान्ति से अपनी।
मानस का तम है खोता॥4॥

उस काल मुग्ध कर मन को।
जो छवि उस पर छा जाती।
रजनी-रंजन में कब है।
वैसी रंजनता आती॥5॥

विधु है स-कलंक दिखाता।
मुख है अकलंक तुम्हारा।
फिर कैसे वह बन पाता।
मे प्राणों का प्यारा॥6॥

कितने कमलों को देखा।
नभ के ता अवलोके।
दिनमणि पर ऑंखें डालीं।
मैंने परमाकुल हो के॥7॥

पर नहीं किसी में मुख-सी।
महनीय कान्ति दिखलाई।
कमनीयतमों में भी तो।
मैंने कम कमी न पाई॥8॥

कैसे जुग फूटा मेरा।
प्रतिकूल पड़े क्यों पासे।
प्रियतम क्यों वदन विलोकें।
दृग रूप-सुधा के प्यासे॥9॥

रूप और गुण
(16)

अरविन्द-विनिन्दक मुखड़ा।
मन को है मधुप बनाता।
वह बन मयंक-सा मोहक।
है मोहन मंत्र जगाता॥1॥

लोकोपकार कर मुख पर।
जो ललित कान्ति है लसती।
उसमें भव-शान्ति-विधायक।
सुरपुर-विभूति है बसती॥2॥

अति सुन्दर सहज रसीले।
बहु लोच-भ जन-लोचन।
मधु हैं मानस में भरते।
कर कुसुमायुधा-मद-मोचन॥3॥

जो पर-दुख-कातरता-जल।
है जन-नयनों में आता।
वह व्यथा-भरित वसुधा को।
है सुधा-सिक्त कर पाता॥4॥

मद किसको नहीं पिलाता।
मादक ऑंखों का कोना।
है किसको नहीं नचाता।
तिरछी चितवन का टोना॥5॥

उससे भरती रहती है।
पावन रुचि की शुचि प्यारेली।
जिस दृग में है दिखलाती।
लोकानुराग की लाली॥6॥

जब आरंजित होठों पर।
है सरस हँसी छवि पाती।
तब नीरस मानस में भी।
है रस की सोत बहाती॥7॥

रहती है सुजन-अधर पर।
जो वर विनोद की धारा।
वह सिता-सदृश हरती है।
अपचिति रजनी-तम सारा॥8॥

है रूप विलास सदन धन।
बहुविध विनोद अवलम्बन।
जल-लोचन रुचिर रसायन।
संसार स्वर्ग नन्दन वन॥9॥

गुण है उदार संयत तम।
उत्सर्ग सलिल सुन्दर घन।
अन्तस्तल पूत उपायन।
सद्भाव सुमन चय उपवन॥10॥

है रूप मोहमय मोहक।
महि मादकता का प्यारेला।
लीनता ललाम-निकेतन।
कमनीय काम-तरु-थाला॥11॥