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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - ६

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(2)

पाकर किस प्रिय तनया को।
गिरिवर गौरवित कहाया।
किसने पवि-गठित हृदय में।
रस अनुपम स्रोत बहाया॥1॥

हर अकलित सब करतूतें।
कर दूर अपर अपभय को।
बन सकी कौन रस-धारा।
कर द्रवीभूत हिम-चय को॥2॥

प्रस्तर-खंडों पेड़ों में।
सब काल कौन अलबेली।
कमनीय छलाँगें भर-भर।
कर-कर अठखेली खेली॥3॥

करके अपार कोलाहल।
है बड़े वेग से बहता।
किसका प्रवाह पत्थर से।
है टक्कर लेता रहता॥4॥

सह बड़ी-बड़ी बाधाएँ।
चट्टानों से टकराती।
अन्तर को कौन द्रवित कर।
प्रान्तर में है आ जाती॥5॥

लहराती हरित धारा में।
कानन की छटा बढ़ाती।
बन कौन मंदगति महिला।
रस से है भरी दिखाती॥6॥

उछली-कूदी बहु छलकी।
लीं शिर पर बड़ी बलाएँ।
गिरि-कान्त-अंक में किसने।
कीं कितनी कलित कलाएँ॥7॥

मोती उछालती फिरती।
दरियों में कौन दिखाई।
किसने रख हरित तृणों को।
पत्थर पर दूब जमाई॥8॥

कल-कल छल-छल पल-पलकर।
है कौन मचलती रहती।
जल बने कौन ढल-ढल के।
बल खा-खाकर है बहती॥9॥

चंचला बालिकाओं-सी।
है थिरक-थिरक छवि पाती।
करि केलि किलक उठती हैं।
किसकी लहरें लहराती॥10॥

हैं हवा बाँधते अपनी।
कैसे जाते हैं खिल-से।
किसके जल में दिखलाये।
बुल्ले प्रसून-से विलसे॥11॥

किसके बल से रहती है।
हरियाली-मुँह की लाली।
किसके जल ने अवनी की।
श्यामलता है प्रतिपाली॥12॥

रस किसमें मिला छलकता।
है कौन सदा रस-भरिता।
किसमें है रस की धारा।
सरिता-समान है सरिता॥13॥

(3)

दृग कौन विमुग्ध न होगा।
अवलोकनीय छवि-द्वारा।
है सदा लुभाती रहती।
सरिता की सुन्दर धारा॥1॥

ऊषा की जब आती है।
रंजित करने की बारी।
किसके तन पर लसती है।
तब लाल रंग की सारी॥2॥

है मिला किसे रवि-कर से।
सुरपुर का ओप निराला।
किरणें किसको देती हैं।
मंजुल रत्नों की माला॥3॥

संगी प्रभात के किसको।
हैं प्रभा-रंग में रँगते।
किसकी रंजित सारी में।
हैं तार सुनहले लगते॥4॥

भरकर प्रकाश किसको है।
दर्पण-सा दिव्य बनाता।
दिन किसकी लहर-लहर में।
दिनमणि को है दमकाता॥5॥

चाँदनी चाहकर किसको।
है रजत-मयी कर पाती।
किसपर मयंक की ममता।
है मंजु सुधा बरसाती॥6॥

जगमग-जगमग करती है।
किसमें ज्योतिर्मय काया।
है किसे बनाती छविमय।
तारक-समेत नभ-छाया॥7॥

जब जलद-विलम्बित नभ में।
पुरहूत-चाप छवि पाता।
तब रंग-बिरंगे कपड़े।
पावस है किसे पिन्हाता॥8॥

पावस में श्यामल बादल।
जब नभ में हैं घिर आते।
तब रुचिर अंक में किसके।
घन रुचितन हैं मिल जाते॥9॥

हैं किसे कान्त कर देते।
बन-बन अन्तस्तल-मंडन।
रवि अंतिम कर से शोभित।
सित पीत लाल श्यामल घन॥10॥

जब मंजुलतम किरणों से।
घन विलसित है बन जाता।
तब किसे वसन बहु सुन्दर।
है सांध्य गगन पहनाता॥11॥

जब रीझ-रीझ सितता की।
है सिता बलाएँ लेती।
तब किसे रंजिनी आभा।
राका रजनी है देती॥12॥