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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - ९

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किस वियोगिनी के ऑंसू हो।
किस दुखिया के हो दृग-जल।
किस वेदनामयी बाला की।
मर्म-वेदना के हो फल॥1॥

निकले हो किस व्यथित हृदय से।
हो किस द्रव मानस के रस।
क्या वियोग की घटा गयी है।
आकुलतामय वारि बरस॥2॥

किस धुन में यों निकल पड़े हो।
जाते हो तुम कहाँ चले।
गिरिवर है पवि-हृदय, किस तरह।
उसमें तुम, हो सरस, पले॥3॥

क्यों पछाड़ खाते रहते हो।
क्यों सिर पटका करते हो।
क्या इस भाँति किसी बहुदग्धाक।
व्यथिता का दम भरते हो॥4॥

या यह दिखलाते रहते हो।
पड़े प्रबल दुख से पाला।
बार-बार व्याकुल हो-हो क्या।
करती है व्यथिता बाला॥5॥

उठे हुए उद्गार-वाष्प जो।
अन्तस्तल में भरते हैं।
धू म-पुंज-सम हृदय-गगन में।
वे जिस भाँति विचरते है॥6॥

उड़ा-उड़ा छींटे बल खा-खा।
क्या वह दृश्य दिखाते हो।
मचल-मचल गिर-गिर उठ-उठ।
क्या उनकी गति बतलाते हो॥7॥

कल-विहीन हो कल-कल करते।
किन ढंगों में ढलते हो।
दृग-जल के समान छल-छलकर।
उछल-उछल क्यों चलते हो॥8॥

क्या वियोग के कितने भावों।
का यों अनुभव करते हो।
अथवा संगति के प्रभाव से।
भावुकता से भरते हो॥9॥

बहुत मचाते हो कोलाहल।
पर यह नहीं बताते हो।
किस वियोगिनी या व्यथिता।
बंधन में बँधो दिखाते हो॥10॥

ऐसी विश्व-व्यापिनी किसकी।
पीड़ा और व्यथाएँ हैं।
अकथनीय किस दृग ऑंसू की।
दुख से भरी कथाएँ हैं॥11॥

है वह कौन कामिनी जिसका।
गया सकल सुख यों कीला।
अथवा प्रकृति-वधाटी की है।
यह रहस्य-पूरित लीला॥12॥

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शार्दूल-विक्रीडित

जो जाता पटका नहीं न पिटता, भाती न जो नीचता।
जो ऊँचे चढ़के न उत्स गिरता तो चोट खाता नहीं।
तो होगा उसका नहीं पतन क्यों जो निम्नगामी बना।
तो चाँटे लगते नहीं मरुत के, छींटे उड़ाता न जो॥1॥

क्यों धोते मल अंक का न मिलते सोते सहस्रों उन्हें।
क्यों बोते रस-बीज केलि-थल में, पाते निकुंजें कहाँ।
कैसे पादप-पुंज से विलसते हो के फलीभूत वे।
तो खोते गिरि-गात की सरसता, जो उत्स होते नहीं॥2॥

कैसे तो मिलते विचित्र विटपी लोकाभिरामा लता।
कैसे तो कुसुमालि लाभ करती हो शस्य से श्यामला।
क्यों पाती बहुरंजिता विलसिता आलोकिता बूटियाँ।
पाके उत्स-समूह जो न रहती उत्साहिता अद्रिभू॥3॥

आता है सुरलोक से सलिल या धारा सुधा की बही।
होता है रव वारि के पतन का या केलि-कल्लोल है।
है उद्वेलित उत्स या प्रकृति का आनन्द-उल्लास है।
छींटे हैं उड़ते कि हैं बिखरते मोती उछाले हुए॥4॥

हो-हो वारि वियोग से व्यथित क्या है सिक्त स्नेहाम्बु से।
या प्यारेसा अवलोक प्राणिचय को होता द्रवीभूत है।
या है भूरि पसीजता विकलता देखे दयापात्रा की।
रोता है जड़ता विलोक गिरि की या उत्स ऑंसू बहा॥5॥

होता है जल-पात-नाद अथवा है शब्द उन्माद का।
या हो आकुल है सदैव कहती कोई कथा दिग्वधू।
या दैवी सरिता-प्रवाह-रव है आकाश से आ रहा।
या गाता गुण उत्स है प्रकृति का स्नेहाम्बु से सिक्त हो॥6॥

चिल्लाते रहते, नहीं सँभलते, बातें नहीं मानते।
हो सीधो चलते नहीं, बिचलते पाये गये प्रायश:।
क्या कोई तुमसे कहे, बहकना है उत्स होता बुरा।
पानी क्या रखते सदैव तुम तो पानी गँवाते मिले॥7॥

प्यासे की धन-प्यासे है न बुझती कोई पिसे तो पिसे।
लोभी-लोक विभूति-लाभ कर भी लोभी बना ही रहा।
बेचारा हिम बार-बार गल के पानी-प्रदाता रहा।
दे-दे वारि विलीन वारिद हुए, क्या उत्स तो भी भरा॥8॥

नाना कीट-पतंग पी जल जिये, पक्षी करोड़ों पले।
हो-हो सिक्त हुई प्रसन्न जनता तो क्या उसे दे सकी।
होती है उपकार-वृत्तिक सहजा लोभोपनीता नहीं।
लाखों पेड़ सिंचे, परन्तु किससे क्या उत्स पाता रहा॥9॥

सिक्ता शीतलतामयी तरलता आधारिता शब्दिता।
नाना केलि-निकेतना सरसता-सम्पत्तिक-उल्लासिता।
शोभा-आकलिता अतीव ललिता लीलांक में लालिता।
उत्कंठा वर व्यंजना विलसिता है उत्स की उत्सता॥10॥

है सींचा करता, असंख्य तरुओं नाना तृणों को सदा।
देता है जल बार-बार बहुश: भृंगों मृगों आदि को।
सोतों का सरितादि का जनक है भू-जीवनाधार है।
तो हो वर्ध्दित क्यों न उत्स वह तो उत्साह की मूर्ति है॥11॥

ऊषा क्यों न उसे प्रदान करती आभा मनोरंजिनी।
क्यों देता न दिनेश दिव्य कर से संदीपिनी दिव्यता।
कैसे तो उससे गले न मिलती राका-निशा-सुन्दरी।
होता है गतिशील उत्स फिर क्यों उत्कर्ष पाता नहीं॥12॥

क्यों लेते गिरि गोद में न उसको देते नहीं मान क्यों।
कैसे आकर वायु पास उसके पंखा हिलाती नहीं।
क्यों पाता न विकास भानु-कर से राकेन्दु से मंजुता।
जो है जीवनवान उत्स उसका उत्थान होता न क्यों॥13॥

जो हैं रोग वियोग सोग फल या संताप में हैं पगे।
यो हैं भावुकता-विभूति अथवा सद्भाव में हैं सने।
या हैं आकुलता-प्रसूत भय या उन्माद के हैं सगे।
या हैं नीर गि भ नयन से या निर्झरों से झ॥14॥