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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ७

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जो माला फिरती रहे प्रति घटी होगा न तो भी भला।
जो संध्या करते त्रिककाल हम हों तो भी नपेगा गला।
जो हों योग-क्रिया सदैव करते तो भी न होंगे सुखी।
होती है यदि अज्ञता विमुखता से सत्यता वंचिता॥6॥

अन्यों के छिनते न स्वत्व लुटते तो कोटिश: स क्र्या।
क्यों होते नगरादि धवंस बहती क्यों रक्त-धारा कहीं।
कैसे तो कटते कराल कर से लाखों करोड़ों गले।
पृथ्वी हो रत सर्व-भूत-हित में जो सत्य को पूजती॥7॥

क्यों होते बहु वंश धवंस मिलते वे आज फूले-फले।
उल्लू है अब बोलता नित जहाँ होती वहाँ रम्यता।
होता देश वहाँ विशाल अब हैं कान्तार पाते जहाँ।
आस्था से अवलोकती वसुमती जो सत्यता-दिव्यता॥8॥

भूमा में भव में विभूतितन में भू में मनोभाव में।
होते हैं जितने विकार मल या मालिन्य के सूत्र से।
देती हैं उनको निवृत्ता कर वे सद्भाव-सद्बोधा से।
हैं संशोधनशील दिव्य कृतियाँ सत्यात्मिका वृत्तिकयाँ॥9॥

कोई है धन के लिए बहँकता कोई धारा के लिए।
कोई राग-विराग से विवश हो है त्याग देता उसे।
कोई वैर-विरोधा-क्रोधा-मत ले देता उसे है बिदा।
प्यारा है जितना प्रपंच उतना है सत्य प्यारा कहाँ॥10॥

क्या होगा कपड़ा रँगे, सिर मुड़े, काषायधारी बने।
मालाएँ पहने, त्रिकपुंडधार हो, लम्बी जटाएँ रखे।
क्या होगा सब गात में रज मले या वेश नाना रचे।
जो हो इष्ट प्रवंचना बन यती जो हो न सत्यव्रती॥11॥

हो-हो आकुल स्वार्थ है दहलता, आवेश है चौंकता।
तृष्णा है मुँह ढाँकती, कुजनता है पास आती नहीं।
निन्दा है बनती विमूढ़, डर से है भागती दुर्दशा।
देखे आनन सत्य का सहमती हैं सर्व दुर्नीतियाँ॥12॥

तारों में दिव के सदैव किसकी है दीखती दिव्यता।
भूतों में भवभूतिमध्य किसका अस्तित्व पाया गया।
जीवों में तरु-लता आदि तक में है कौन सत्ता लसी।
कैसे तो न असत्य विश्व बनता जो सत्य होता नहीं॥13॥

सारी विश्व-विभूति के विषय का आधार अस्तित्व है।
है अस्तित्व-प्रमाण सत्य वह जो सर्वत्र प्रत्यक्ष है।
अन्तर्दृष्टि समष्टि व्यष्टिगत हो जो दृश्य है देखती।
तो होती रसवृष्टि है हृदय में सत्यात्मिका सृष्टि है॥14॥

है विश्वस्त, विभूतिमान, भव का सर्वस्व, सर्वाश्रयी।
है विज्ञान-निधन, ज्ञान-निधिक का विश्राम, शान्ताश्रयी।
वादों से बहु अन्यथाचरण से वैदग्धा-व्युत्पत्तिक से।
तर्कों से वह क्यों असत्य बनता, है सत्य तो सत्य ही॥15॥

चाहे हो रवि या शशांक अथवा हों व्योमता सभी।
चाहे हों सुरलोक के अधिकप या हों देव देवांगना।
चाहे हो दिव-दामिनी भव-विभा चाहे महाअग्नि हो।
दिव्यों में उतनी मिली न जितनी है सत्य में दिव्यता॥16॥

है रम्या गुरुतामयी सहृदया मान्या महत्ताअधिकतरंकिता।
नाना दिव्य विभूति-भाव-भरिता कान्ता मनोज्ञा महा।
सौम्या शान्ति-निकेतना सदयता की मुर्ति विता।
श्वेताभा-सदना सितासिततरा है सिध्दिदा सत्यता॥17॥