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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ - ५

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(2)
वंशस्थ

अनन्त में भूतल में दिगन्त में।
नितान्त थी कान्त वनान्त भाग में।
प्रभाकराभा-गरिमा-प्रभाव से।
प्रभावित दिव्य प्रभा प्रभात की।

(3)

शार्दूल-विक्रीडित

हैं मुक्तामय-कारिणी अवनि की, हैं स्वर्ण-आभामयी।
हैं कान्ता कुसुमालि की प्रिय सखी, है वीचियों की विभा।
शोभा है अनुरंजिनी प्रकृति की क्रीड़ामयी कान्ति की।
दूती हैं दिव की प्रभात-किरणें, हैं दिव्य देवांगना।

घन-पटल
( 1)
गीत

घिर-घिरकर नभ-मंडल में।
हैं घूम-घूम घन आते।
दिखता श्यामलता अपनी।
हैं विपुल विमुग्ध बनाते॥1॥

ये द्रवणशील बन-बनकर।
हैं दिव्य वारि बरसाते।
पाकर इनको सब प्यासे।
हैं अपनी प्यासे बुझाते॥2॥

इनमें जैसी करुणा है।
किसमें वैसी दिखलाई।
किसकी ऑंखों में ऐसी।
ऑंसू की झड़ी लगाई॥3॥

देखे पसीजनेवाली।
पर ऐसा कौन पसीजा।
है कौन धूल में मिलता।
औरों के लिए कहीं जा॥4॥

ऐसा सहृदय जगती में।
है अन्य नहीं दिखलाया।
घन ही पानी रखने को।
पानी-पानी हो पाया॥5॥

सब काल पिघलते रहना।
जो जलद को नहीं भाता।
तब कौन सुधा बरसाकर।
वसुधा को सरस बनाता ॥६॥

बहता न पयोद हृदय में।
जो दया-वारि का सोता।
तो कैसे मरु-महि सिंचती।
क्यों ऊसर रसमय होता॥7॥

जो नहीं नील नीरद में।
सच्ची शीतलता होती।
किस तरह ताप निज तन का।
तपती वसुंधरा खोती॥8॥

जो जीवन-दान न करता।
क्यों नाम सुधाधर पाता।
यदि परहित-निरत न होता।
कैसे परजन्य कहाता॥9॥

वह सरस है सरस से भी।
वह है रस का निर्माता।
वह है जीवन का जीवन।
घन है जग-जीवन-दाता॥10॥

(2)
शार्दूल-विक्रीडित

केले के दल को प्रदान करके बूँदें विभा-वाहिनी।
सीपी का कमनीय अंक भरके, दे सिंधु को सिंधुता।
शोभा-धाम बना लता-विटप को सद्वारि के बिन्दु से।
आते हैं बन मुक्त व्योम-पथ में मुक्ता-भरे मेघ ये॥1॥

शृंगों से मिल मेरु में विचरते प्राय: झड़ी बाँधते।
बागों में वन में विहार करते नाना दिखाते छटा।
मोरों का मन मोहते, विलसते शोभामयी कुंज में।
आते हैं घन घूमते घहरते पायोधि को घेरते॥2॥

कैसे तो सर अंक में विलसते, क्यों प्राप्त होती सरी।
कैसे पादप-पुंज लाभ करती हो शस्य से श्यामला।
कैसे तो मिलते प्रसून, लसती कैसे लता-बेलि से।
जो पाती न धारा अधीर भव में धाराधरी-धारता॥3॥

कैसे तो लसती प्रशान्त रहती, क्यों दूर होती तृषा।
कैसे पाकर जीव-जन्तु बनती श्यामायमाना मही।
होते जो न पयोद, जो न उनमें होती महाआर्द्रता।
रक्षा हो सकती न अन्य कर से तो चातकी वृत्ति की॥4॥

गाती है गुण, साथ सर्व सरि के सानंद सारी धरा।
प्रेमी हैं जग-जीवमात्रा उसके, हैं चातकों से व्रती।
क्यों पाता न पयोद मान भव में, होता यशस्वी न क्यों।
है स्नेही उसका समीर, उसकी है दामिनी कामिनी॥5॥

मीठा है करता पयोद विधिक से वारीश के वारि को।
देता है रस-सी सुवस्तु सबको, है सींचता सृष्टि को।
नेत्रों का, असिताम्बरा अवनि का, काली कुहू रात्रि का।
खोता है तम दामिनी-दमक की दे दिव्य दीपावली॥6॥

नीले, लाल, अश्वेत, पीत, उजले, ऊदे, हरे, बैंगनी।
रंगों से रँग, सांध्य भानु-कर की सत्कान्ति से कान्त हो।
नाना रूप धरे विहार करते हैं घूमते-झूमते।
होगा कौन न मुग्ध देख नभ में ऐसे घनों की छटा॥7॥

हैं ऊँचे उठते, सुधा बरसते, हैं घेरते घूमते।
बूँदों से भरते, फुहार बनते या हैं हवा बाँधते।
दौरा हैं करते घिरे घहरते हैं रंग लाते नये।
क्या-क्या हैं करते नहीं गगन में ये मेघ छाये हुए॥8॥

कैसे तो पुरहूत-चाप मिलता, क्यों दामिनी नाचती।
क्यों खद्योत-समूह-से विलसती काली बनी यामिनी।
होते जो न पयोद, गोद भरती कैसे हरी भूमि की।
आभा-मंडित साड़ियाँ सतरँगी क्यों पैन्हतीं दिग्वधू॥9॥

मेघों को करते प्रसन्न खग हैं मीठा स्वगाना सुना।
हैं नाना तरु-वृन्द प्रीति करते उत्फुल्लताएँ दिखा।
आशा है अनुरागिनी जलद की, है प्रेमिका शर्वरी।
सारी वीर-बहूटियाँ अवनि की रागात्मिका मूर्ति हैं॥10॥

गीत
(3)

जो तरस न आता कैसे।
ऑंखों में ऑंसू भरता।
वह क्यों बनता है नीरस।
जो बरस सरस है करता॥1॥

चातक ने आकुल हो-हो।
पी-पी कह बहुत पुकारा।
पर गरज-तड़पकर घन ने।
उसको पत्थर से मारा॥2॥

पौधा था एक फबीला।
सुन्दर फल-फूलोंवाला।
टूटी बिजली ने उसको।
टुकड़े-टुकड़े कर डाला॥3॥

सब खेत लहलहाते थे।
भू ने था समा दिखाया।
वारिद ने ओले बरसा।
मरु-भूतल उसे बनाया॥4॥

जब अधिक वृष्टि होती है।
पुर ग्राम नगर हैं बहते।
उस काल करोड़ों प्राणी।
हैं महा यातना सहते॥5॥

जब चपला-असि चमकाकर।
है महाघोर रव करता।
तब कौन हृदय है जिसमें।
घन नहीं भूरि भय भरता॥6॥

अवलोक क्रियाएँ उसकी।
क्यों कहें जलद है कैसा।
यदि माखन-सा कोमल है।
तो है कठोर पवि-जैसा॥7॥

है विषम गरल गुणवाला।
तो भी है सुधा पिलाता।
घन उपल सृजन करता है।
मुक्ता भी है बन जाता॥8॥

कोई न कहीं पर घन-सा।
है तरल-हृदय दिखलाता।
वह हो हिमपात-विधायक।
पर है जग-जीवन-दाता॥9॥

है थकित-भ्रमित चित होता।
कैसे रहस्य बतलायें।
हैं चकित बनाती भव की।
गुण-दोषमयी लीलाएँ॥10॥

(4)
शार्दूल-विक्रीडित

क्या सातों किरणें दिवाधिकपति की हैं दृश्यमाना हुईं।
किम्वा वन्दनवार द्वार पर है बाँधी गयी स्वर्ग के।
या हैं सुन्दर साड़ियाँ प्रकृति की आकाश में सूखती।
किम्वा वारिद-अंक में विलसता है चाप स्वर्गेश का।