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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - ६

जिसके तरल हृदय की महिमा जलधिक-तरंगें गाती हैं।
कल-कल रव करके सरिताएँ जिसकी कीत्तिक सुनाती हैं।
सकल जलाशय जिसके करुणामय आशय के आलय हैं।
पा जिसका संकेत पयोधार सदा बरस पाते पय हैं॥11॥

करके जीवन-दान सर्वदा जो जग-जीवनदाता है।
एक-एक तरु-तृण से जिसका जलसिंचन का नाता है।
वाष्परूप में परिणत हो जो पूत्तिक व्याप्ति की करता है।
वह है वरुण असरसों में भी जो सदैव रस भरता है॥12॥

जिसकी ज्योति सदा जगतीतल में जगती दिखलाती है।
भर-भर तारक-चय में जिसकी भूरि विभा छवि पाती है।
बसकर जो विद्युत-प्रवाह में कान्त कलाएँ करता है।
जिसका तेज:पुंज तमा के तिमिर पुंज को हरता है॥13॥

जो है दीप्ति विभूतिमान जो विश्व-विलोचन-तारा है।
आलोकिता प्रकृति की कृति को जिसका प्रबल सहारा है।
जो कर रत्नराजि को रंजित मणि को कान्त बनाता है।
वह पावक है दिव भी जिससे परम दिव्यता पाता है॥14॥

उठा-उठा उत्ताकल तरंगें निधिक को कंपित करता है।
जो दिगन्त में महाघोर रव गरज-गरजकर भरता है।
ले तुरंग का काम छिन्न घन से तरंग में आता है।
जो प्रवेश कर कीचक-रन्धारों में वर वेणु बजाता है॥15॥

खिला-खिला करके कलियों को हँसा-हँसाकर फूलों को।
उड़ा-उड़ाकर वन-विभूतियों के बहुरंग दुकूलों को।
जो बहता है सुरभित हो, नर्त्तन कर मुग्ध बनाता है।
वह समीर है जो सारी संसृति का प्राण कहाता है॥16॥

यह संसार व्याधिक-मन्दिर है बहु तापों से तपता है।
उसका गला विविध पीड़ाओं द्वारा बहुधा नपता है।
इनका शमन हाथ में जिन विबुधों के रहता आया है।
रस-रसायनो द्वारा निर्मित जिनकी अद्भुत काया है॥17॥

जड़ी-बूटियों में प्रभाव जिनका परिपूरित रहता है।
स्रोत निरुजता का ओषधिक में जिनके बल में बहता है।
स्वयं अगद रह सगदों को जो अगद सदैव बनाते हैं।
वे पीयूषपाणि-पुंगव अश्विनीकुमार कहाते हैं॥18॥

जिसका आगम अरुण दिखा अरुणाभा सूचित करता है।
जो सिन्दूर उषा-रमणी की मंजु माँग में भरता है।
जिससे पावनतम प्रभात नित प्रभा-पुंज पा जाता है।
जिसके कान्ति-निकेतन कर से जगत कान्त बन पाता है॥19॥

जो है जागृति मूर्तिमन्त, जो दिव्य दिवस का धाता है।
सतरंगी किरणें धारण कर जो सप्ताश्व कहाता है।
जो विभिन्न रूपों से सा भव में व्याप्त दिखाता है।
वह दिनमणि है जो त्रिकलोकपति-लोचन माना जाता है॥20॥

जो रजनी का रंजन कर रजनी-रंजन कहलाता है।
जो नभतल में विलस-विलस हँस-हँसकर रस बरसाता है।
दिखा तेज तारक-चय में जो तारापति-पद पाता है।
जो है सिता-सुन्दरी का पति सिन्धुसुता का भ्राता है॥21॥

जो शिव के विशाल मस्तक पर बहु विलसित दिखलाता है।
सुन्दर से सुन्दर भव-आनन जिसका पटतर पाता है।
मिले अलौकिक रूप-माधुरी जो बनता जग-जेता है।
वह मयंक है जो संसृति को सुधासिक्त कर देता है॥22॥

जिनकी ब्रह्मपुरी में वाणी वीणा बजती रहती है।
जिसकी ध्वनि ब्रह्माण्डमयी बन, पाती महिमा महती है।
प्राणिमात्रा-कंठों में उसकी झंकृत छटा दिखाती है।
विविध स्वरों ध्वनियों में परिणत हो वह मुग्ध बनाती है॥23॥

जिनके चारों वदन वेद हैं जो भव-भेद बताते हैं।
सृष्टि-सृजन की सकल अलौकिक बातें जिनमें पाते हैं।
जिनकी रचना के चरित्रा अति ही विचित्र दिखलाते हैं।
वे हैं ब्रह्मा पलक मारते जो ब्रह्मांड बनाते हैं॥24॥

दो क्या, चार भुजाओं से जो जग का पालन करते हैं।
चींटी हो या हो गजेन्द्र जो उदर सभी का भरते हैं।
स्तनपायी प्राणीसमूह को जो पय सदा पिलाते हैं।
प्रस्तर-भ कीटकों को जो दे-दे अन्न जिलाते हैं॥25॥

जो है कर्म-सूत्र-संचालक विविध विधन-विधाता है।
जो हैं कुत्सित पात्रा नियामक सत्पात्रों के पाता है।
हैं संसार-चक्र-परिचालक जो वैकुंठ-निवासी हैं।
वे हैं अखिल लोक के नायक वे ही रमा-विलासी हैं॥26॥

मंगर्लमूर्ति सुअन हैं जिनके जिनको मोदक प्यारे हैं
सुर-सेनापति श्याम-र्कात्तिकक जिनके बड़े दुला हैं।
सिंहवाहिनी प्रिया सुरसरी-धारा जिनकी प्यारी है।
भाल-विराजित चन्द्रकला से जिसकी मुख-छवि न्यारी है॥27॥

जिनके तन की वर विभूति सारी विभूतियाँ देती हैं।
जिनकी कृपादृष्टि रंकों को भी सुरपति कर लेती है।
है कैलास धाम जिनका जिनको मति समझ न पाती है।
वे शिव हैं जिनकी कुटिला भूर प्रलयंकरी कहाती है॥28॥

दैवी कला सकल लोकों ओकों में कान्त दिखाती है।
सा ब्रह्मांडों में सुरगण-सत्ता सबल जनाती है।
सबमें सकल सुसंगत बातें सहज भाव से भरते हैं।
सारी संसृति का नियमन नियमानुसार वे करते हैं॥29॥

ब्रह्मलोक में है विशेषता है बैकुंठ-विभवशाली।
बाते हैं गौरव-उपेत कैलास-धाम गरिमावाली।
पर न भ्रान्तिवश उनके वासस्थल को स्वर्ग बताते हैं।
क्या 'त्रिकदेव' चतुरानन कमलापति शिव कहे न जाते हैं॥30॥